, ( १२ ) संसार से ऊब कर कहीं भी शान्ति न मिलने पर जब तुम्हारी गोद में आते थे तो तुम्हारे एक ही दिन के प्यार से तुम्हारी उस वात्सल्य मय दृष्टि से ही वे मुनि हो जाते थे । तन, मन, आत्मा सब शीतल, शुद्ध और शान्ति मय बन जाती थी तुम्हारी गोद छोड़ कर कहीं जाने को जी नहीं चाहता था । तुमने अपने ही आँगन में अपनी ही आँखों के सामने उनकी कुटिएँ बनवा रक्खीं थीं। तुम प्रातःकाल प्रातः श्री धारण करके ऊषा की लाली से अपनी मुख कान्ति को प्रतिविम्बित करती हुई और प्रभाती के स्वर में लोरियाँ गाती हुई जब उन अपने बच्चों को-हाँ बड़े बच्चों को जगाने उनके द्वारा पर जाती-तब तुम्हारा कल २ निनाद सुन कर वे विनिद्र हो कर देखते-तुम उनकी ओर उत्फुल्ल नयनों से देखती हुई मुस्करा रही हो-अपनी ओर बुला रही हो । नब ? तब वे तुम्हारे बालक ! बढ़े बालक ! अपने तपस्वी पन को भूल कर अपनी ज्ञान गरिमा को एक ओर रख कर, अपनो सफेद डाढो की परवा न कर के -मोहान्ध की तरह, हाँ-छोटे, बिल्कुल छोटे बालक की तरह-दौड़ कर तुम्हारी गोद में जा कूदते, लोटते. पोटते,ऊधम मचाते और अपनी उस बहुत दूर की अतीत बाललीशा को करते थे। और तुम ? तुम भी यह भूल जाती थीं कि मेरे ये बच्चे बड़े हो गए हैं, ज्ञानी हो गए है--तुम
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