(१५६ ) लार्ड इरबिन का जमाना था । मृदु दमन में लाठी चार्ज का शस्त्र श्राविष्कार हो चुका था । शक्तिशाली लार्ड इरविन की सरकार जिन सैनिको के लिये प्रतिवर्ष ६२ करोड रुपया खर्च करती है उन्हें अफीम की पीनक में ऊँघत! छोड़, तोप, बंदूक, मशीनगन, बम श्रादि को वक्त-वेवक्त के लिये सुरक्षित रख, लाठी का स्वाद इन कानून-तोड़ स्त्री-पुरुषों को चखा रही थी। बुद्धिमान अँगरेज़ दूसरों की तबियत को फौरन समझ जाते हैं, और भारतीयों को लाठो ही प्रिय है, इसलिये लाठी-चार्ज ही अमल में लाया जा रहा था । मालूम होता है उन्हें चकबस्त की वह बात याद थी, जो उन्होंने एक बार महायुद्ध के अवसर पर जर्मन से कही थी- "जर्मन, तेरी तोपों में हम बाँस चला देंगे।" अस, उधर नमक-कानून टूट रहा था, इधर केस चलाए जा रहे थे। इस शुद्ध स्वदेशी युग में, शुद्ध खद्दरधारियों पर, शुद्ध भारतीय बाँस की शुद्ध लाठियाँ जब-तत्र अहिंसा-वृत्ति से बरलाई जाया करती थी। ऐसे ही गुनगुने वे दिन थे। (२) संध्या के समय कोई डेढ पाव नमक बनाकर-कड़ाही. कलछुल, कोरे बरतन वालिटयर लोगों के कंधे पर लादे माहभा न्य लीडरगण अपने चप्पलों को अंग्रेजों की बनाई तारकोल की चमचमाती सड़क पर चप-चप चलाते, सिंह का-सा सीना
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