भीड़ का पार न था। रामनाथ जी का व्याख्यान होगा। साढ़े आठ का समय था । नौ का समय होगया । कहाँ है ! वह सबल वाग्धारा का चीर देशभक्त ? हजारों हृदय उस के लिए उत्सुक थे। कई एक लान्न पगड़ियाँ और एकाध सुनहरी झब्बे लोह भूषण छिपाये उनकी प्रतीक्षा में थे। सभापति ने ऊब कर कहा-महाशय, खेद है कि व्याख्याता महाशय का अभी तक पता नहीं अतएव सभा बर्खास्त की जाती है। एक बरीक स्वर ध्वनि मानो आकाश चीर कर जनरव को मूक कर गई । एक स्त्री धीरे धीरे मञ्च की ओर अग्रसर हुई। उसने कहा-भाइयो ! श्री रामनाथ जी किसी विशेष कार्य में भाग लेते हैं, उनके स्थानापन्न मैं अपने प्राण और शरीर को लिये हाजिर हूँ। मुझे दुःख है कि मैं उनकी तरह व्याख्यान नहीं दे सकती । मगर मैं अभी इसी क्षण मजिस्ट्रट की आज्ञा का विरोध करती हूँ। मैं अभी निर्दिष्ट स्थान पर जाती हूँ, जिसे चलना हो साथ चले। पर जो सिर्फ व्याख्यान सुनने के शौकीन हैं वह कहीं से किराये पर कोई ब्याख्याता बुलालें।" स्त्री पुरुषों का आदेश करें-यह पुरुष कम सहन करते है। लोग स्तब्ध थे। स्त्री ने क्षण भर स्तब्ध खड़े रह कर अपना काँसा कसा
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