(६३) ओर देखा, वह कुछ देर स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रही। अभी भी नायक के हाथ में पिस्तौल थी । नायक घुटने के बल सिर झुकाये खड़ा-“बहिन क्षमा, बहिन क्षमा, शब्द बार-बार कह रहा था । बालिका साहसपूर्वक नायक के पास आई और उसका नकाब पकड़ कर खींच लिया । तप्त अंगार के समान नायक का मुख, नाम मात्र की रेखा के समान उस की मछे और आँसू से छल-छलातो हुई बड़ी-बड़ी आँखे, अनुनय के लिए फड़कने हुए होंठ, यह देख कर बालिका स्त- म्भित रह गई। उसने रोना चाहा पर रो न सकी क्रोध करना चाहा क्रोध भी न कर सकी । उस ने नायक की ओर से मुह फेर लिया। नायक धरती में लेट गया उसने बालिका के पैर छूने के लिए हाथ बढ़ाया। बालिका का भय बहुत कुछ दूर हो गया था। उसने कुछ क्रुद्ध और कुछ दुःख भरे स्वर में कहा- "ऐसे भले हो तो यह काम क्यों करते हो ?" बालिका के होंठ काँपने लगे। युवक ने कहा- "बहिन, यह सब इस अभागे देश के लिए जिसके लिए हमने प्राण और शरीर दे दिया है। इस धन का खरीदा हुआ अन्न का एक दाना भी हमारे लिये गो मांस के समान है, हम निरुपाय होकर ही यह सब करते हैं।" "फिर इसे क्यों मार डाला ?"
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