पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ओश्म अथ द्वादशोऽध्यायः "चातुर्वर्ण्यस्य कृल्नो ऽयमुक्तो धर्मस्त्वयाऽनघ । कर्मणांफलनिवृत्ति 'शंस नस्तत्वतः पराम ॥१॥ स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन मानवो भूगु । अस्य सर्वस्व शृणुत कर्मयोगत्य निर्णयम्।।" "हे पापरहित ! तुम ने चारों वर्गों का यह सम्पूर्ण धर्म कहा अव कमों की शुभाशुम परमार्थरूप फलप्राप्ति हमसे कहिये (इस प्रकार महर्पि लोगो ने भूगु जी से पूछा) ॥१॥ वह धर्मात्मा मनु के पुत्र भृगु उन महर्पियों से बोले कि इस सम्पूर्ण कर्मयोग के निश्चय को सुनिये- ॥ (सष्ट है कि इन १।२ श्लोको का कर्ता न मनु है न भृगु । किन्तु कोई अन्य का सम्पादकावा संग्राहक कहता है जिसने इस धर्मशास्त्र में भृगु का ऋपियों से संवाद मान रक्खा है) IR|| शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम् । कर्मजा गयो नशामुत्तमा धममध्यमाः ॥३॥ तस्येह त्रिविधस्यापि व्यविष्ठानस्य देहिनः । दशलक्षणयुक्तम्भ मन विद्यात्प्रवकम् ॥४॥ मन, वाणी तथा शरीर से उत्पन्न शुभाशुभ फल वाले कर्म से मनुष्यों की उत्तम मध्यम, अधम गति (जन्मान्तर की प्राप्ति) होती है ॥३॥ उस देही के उत्तम. मध्यम अधम और मन वाणी शरीर के आमित फल के देने वाले तीन प्रकार के १० लक्षण