पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३४

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एकाइराऽध्याय ज्येष्ठांशं प्राप्नुयाचास्य यवीयान्गुणताधिकः १८५ प्रायश्चिचे तु चरिते पूर्णकुम्भमपा नवस् । तेनैव साधं पास्युः स्नात्रा पुरये जलाशये १८६॥ "और बड़ाई और ज्येष्ठपने का उद्वार धन भी छुट जाने तथा बड़े का भाग, जो छोटा गुणमे अधिक हो, वह पावे ॥१८५॥ परन्तु प्रायश्चित्त करने पर पानी मे भरे हुवे नये घड़े को उस के साय बान्धव लोग पवित्र जलाशमें स्नान करके डाल दे ॥१८६१ "सत्वप्सु तै घट प्रास्य प्रविश्य भवनं स्वकम् । सर्वाणि भातिकार्याणि यथापूर्व समाचरेत् ॥१८॥ एतदेवविधि कुर्यायोपित्सु पचिवान्धपि । वस्त्रानपान देयं तु वसेबुश्च गृहान्तिके ॥१८॥" और वह उस घड़े को पानी में फेंक कर अपने मकान में आकर यथोक्त सम्पूर्ण ज्ञातिकमों को करने लगे ॥१८॥ पतित स्त्रियों के विषय में भी यही विधि करे और खाना कपड़ा देवे तथा घर के पास दूसरे मकान में रहने दे" (१८२ से १८०) तक श्लोक भी प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं क्यों कि प्रथम तो मृतक श्राद्ध ही वैदिक नहीं ! फिर पतित का जीवने हुवे हो मृतकवन् श्राद्ध आशौचादि सब व्यर्थ हैं । पतित के साथ सब प्रकार के सम्बन्ध छोड़ देना पूर्व कह ही आये। इस के दायमाग का निपेय दायभाग यकरणमें कर आये । यहा प्रायश्चित्तमात्र का प्रकरण है। आशौच और दायभाग का वर्णन यहां प्रकरण विरुद्ध भी हैं ) ॥१८८॥ एनस्विमिरनिर्णितैनार्थ किचित्सवाचांन् । कृतानिऐजनांश्चैव न जुगुप्सेत कहिचिन् ।१८६/