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प्रथमाऽध्याय आचारांश्चैव सर्जेपी कार्याकार्यविनिर्णयम् । यथाकाल (काम) यथायोगंवक्तुमहस्यशेषताRI] अर्थात् जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्विज और सब प्राणिमात्रकी उत्पत्ति और प्रलय ॥शा और सबके आचार और कार्य, कार्य का निर्णय काल (वाइच्छा) और योगके अनुसार समस्त कहिये IPL नीन पुस्तकोंमे काला पाठ देखा जाता है । यदि ये श्लोक प्राचीन माने जाय तो यह सं राय सर्वथा नहीं रहता कि मुनियोंने धर्म पूछा था. मनुनी सृष्टिका वर्णन क्यो करने लगे। हमारे विचार में तो जैसे बहुत श्लोक मनु में नये मिल गये वैसे ही ऐसेर श्लोक मनुमे जातेरहे और किन्हीर पुस्तकोंमें रहगये ।। ततः स्वयंभूभगवान व्यक्तोव्यञ्जयनितम् । महाभूतादि वृत्तौवाः प्रादुरासीचमानुदः ॥६॥ योऽसावतीन्द्रियग्रायः मूनोऽव्यक्त सनातनः । .सर्वभूतमोऽचिन्स्पः स एव स्वयमुद्वमौ ॥७॥ अर्थ-इस (दशा) के अनन्तर उत्पत्तिरहित, सर्वशक्तिमान इन्द्रियोसे अतीत (प्रलयकाल के अन्तमे) प्रकृति की प्रेरणा करने वाले महत्तत्व, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि कारणोंमे युक्त है वल जिसका, उस परमात्मा ने इनका प्रकाशित करके अपने को प्रकट किया । (परमेश्वर का प्रकट होना यही है कि जगत् की रचना और जगन् के लोगो को अपना बान कराना) ॥ जो कि -इन्द्रियो से नहीं (किन्तु आत्मा से) जाना जाता और परम सूक्ष्म अव्यक्त सनातन संपूर्ण विश्वमे व्याप्त तथा अचिन्त्य है वही अपने आप प्रकट हुआ ॥ ७॥