पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद 1 ढराने वाले दण्ड देकर और अन भन करके राजा दंश से निकाल दे ॥३५२॥ तत्समुत्थाहि लोकस्य जायते वर्णसंकरः । येन मूलहराधर्मः सर्वनाशाय कल्पते ॥३५३|| परस्य पत्नया पुरुषः संभापां योजयन रहः । पूर्णमाचारिता दोषैः प्राप्नुयात्पूनसाहसम् ॥३५४॥ उस (परस्त्रीगमन) से लोगों में वर्णसङ्कर उत्पन्न होते हैं क्योकि मूल को नारा कल वाला अरन सब के नाश करने में समर्थ है ।।३५३।। पहले बदनाम हुआ पुरुष एकान्त में दूसरे की स्त्री के साथ बात चीत करे तो "प्रथम साहस दण्ड पावे ३५४ यस्त्वनाक्षारितः पूर्वमभिभापेत कारणात् । नदोष प्राप्नुयात्किचिन्नहि तस्य व्यतिक्रमः ॥३५५॥ परस्त्रिय योऽमिवदेत्तीर्थररये वनेऽपि वा । नदीनां वापि संभेदे स संग्रहणमाप्नुयात् ॥३५६॥ जो पहले से बदनाम नहीं है और किसी कार्य से लोगों के सामने (पर स्त्री से) वोले वह दोप को प्राप्त न हो क्योकि उसका कोई अपराध नहीं है ॥३५५।। जो पराई स्त्री से तीर्थ वा अरण्य (जङ्गल) वा बन वा नदी के सझम मे समापण करे उस को पर- स्त्री हरण का अपराध हो ।३५६॥ उपचारक्रिया केलि: स्पर्धा भूपणवाससाम् । सह खट्वासनं चैव सर्व संग्रहणं स्मृतम् ॥३५७।। स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टोवा मर्पयेत्तया ।