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भूमिका चैकारिक तेजसं च तथा भूतादिमेव च । एकमेव त्रिधास्तं महानित्येव संस्थितम् ।। इन्द्रियाणां समस्तानां प्रभत्रं प्रलयं तया । १११५ से आगे. अविशेषान्विश्च विपयांश्च पृथग्विधान् । यह अर्थ श्लोक दो पुस्तकों में अधिक मिलना है ॥ १।१६ मे १ पुस्तक में परणामप्यमिपएमयानपि । मात्रामु = मात्रास्तु देखा जाता है ॥ १।१७ में १ पुस्तक में तस्येमानि तानीमानि है॥ १२५ के १ पुस्तक मे वाचवलं है ॥ १।२७ के १ पुस्तक में सार्व-विध है।। १ । ४६ के ७ पुस्तकों में स्थावरा तरव है ।। १।४९ के १ पुस्तक मे-अन्त. संज्ञा = अत मज्ञा और ४ पुस्तकों के अन्तसंज्ञाः और दो पुस्तको में - फलपुष्पसम०, पाठ है। उन पाठो से वृक्ष सुखदु खयुक्त नहीं सिद्ध होते ॥ ११३ से आगे १ पुस्तक में और दूसरी में ७० वे श्लोक मे यह अर्ध श्लोक अधिक है। कालप्रमाणं बच्यामि यथावत्र निवोधन ।। - ११७८ से आगे ३ पुस्तकों में आगे कहा श्लोक अधिक है - परस्परानप्रवेशाद्धारयन्ति परस्परम् । गुणं पूर्वस्य पूर्वस्य धारयन्त्युत्तोचरम् ॥ १।८५ में-युगड्डासानुरुपत. तत्तद्धर्मानुरूपत. पाठ है और इस से आगे १ पुस्तक में निम्नस्थ श्लोक अधिक है जिस की व्याख्या केवल रामचन्द्र टीकाकार ने जो सब से नवीन है की है जिस से प्रतीत होता है कि अति नवीन समय तक युगर के पृथक् २ धर्मों की शिक्षा की मिलावट होती रही है सुखदुखममा