पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१२

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पंचमेऽध्याय मन वाणी देह से जो पतिका इख नहीं देती यह पति लोक को प्राप्त होती है और अच्छे पुनप उसको साध्वी कहते है।।१६५।। इस धर्म से मन वाणी और देह का संयम करने वाली स्त्री यहां श्रेष्ठ कीर्ति श्री: पालाक में पतिनाफको प्राप्त होती है ।।१। एवं वृत्तांसवणास्त्री द्विजातिः पूर्वमारिणाम। दाहोदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित् ॥१६॥ भार्यायै पूर्वमारिए ढत्याग्नीनन्त्यकर्मणि । पुनारक्रियां कुर्यात्पुनराधानमेव च ॥१६८|| ऐसी लगाम्बी (पति स) पूर्व मर जाव तो धर्मक्ष द्विज़ उसे स्माग्नि और यक्षपात्रा के सहित दाह देवे ।।१६७। पूर्व मरी स्त्री को ज्याप्ट में अग्नि देकर गृहन्यानम के निमित्त पुन विवाह करे तो फिर अग्निहोत्र लेवे ॥१६॥ अनेन विधिना नित्यं पंचयज्ञान हापरेत् । द्वितीयमायुपोभागं कृतदारो गृहे बसेन् ॥१६॥ इस विधि से विवाह करने वाला पुरुष आयु का दूसरा भाग गृहस्थाश्रम में व्यतीत करे और पञ्चमहायो का त्याग न करे। (यद्यपि पुम्पों के साथ ही स्त्रियों का भी समान्य धर्म कहा गया समझना चाहिये, परन्तु १४७ से अध्याय समानि तकस्स बाजे विशप धर्म है उस का वर्णन है । इसमे १४७ ॥ १४८ वे श्लोकों का तात्पर्य नवमाध्याय में भी आवेगा इसलिये पुनरुक से हैं । १५४ ३ मे पुरुष का अनुचिन पक्षपात (हिमायत) है। १५७ से १६१ तक स्त्रीको विधवा होने पर ब्रह्मचर्य से रहने की उत्तमता का वर्णन है । नियोगादि करना उससे घटिया पक्ष है । १६३ ॥१६४ में भी परपुरुष सग की निन्दा है वह व्यभिचार की निन्दा है।