पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६१

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२५८ मनुस्मृति भापानुवाद आत्मनोवृत्तिमन्विच्छन्गृहायात्साधुतः सदा ।।२५२।।' 'गुरु और भृत्य भार्यादि क्षधा से पीडित हों तो इनकी तृप्ति और देवता अतिथि के पूजन के लिये सबसे ग्रहण करले, परन्तु आप उसमे से भाजन न करे ।।२५१।। किन्तु माता पिता के मरने पर वा उनके बिना घर में रहता हुवा अपनी वृत्ति की इच्छा करता हुवा सदा साधु से ही ग्रहण करे ॥२५॥ "आधिक. कुलमित्रं च गोपालादासनापितौ । एते शूढेष भोज्याना यश्चात्मानं निवेदयेत् ।।२५३||" "आधी साझे की खेती आदि करने वाला और कुल मित्र और गोपाल तथा दास और नापित, ये शूद्रो मे भाज्यान हैं' (अर्थात् इनका अन्न भाजन योग्य है) और जो अपने को निवेदन करे (उसका भी अन्न) भोजन योग्य है ।२५३।।' (सवका जल पीना विना मांगे मिलने पर भी अपेय है और इस २४७ वे मे तो मूल फल अन्न सभी विना मांगे स्वयं कोई कहे कि लीजिये तो गड़प करना विधान करके पिचली सारी शुद्धि पर पानी फेर दिया । २४८ वे में दुष्कृतकर्मा की भी अयाचित मिक्षा का ग्रहण अनुचित है। प्रथम तो अयाचित का नाम मिक्षा रखना ही व्यर्थ है और श्लोक बनाने वाले को अपने हृदयमे भी पिन और स्याज्य होने का सन्देह है उसी को दावत्ता हुवा कहता है कि 'इस को प्रजापति ने ग्राह्य माना है" अर्थात् मेरा कहना तुम न मानो तो प्रजापति की अनुमति दी माननी ही चाहिये । धन्य । २४७ में कहा है कि जो अयाचित मिक्षाका अनादर करता है उसके पितर और अग्नि १५ वर्ष तक कव्य हन्य नही खाने हैं । मरे पितरों की दशा तो श्लोक बनाने वाले जाने परन्तु जीते पितर और अग्नि तो खाते प्रत्यक्ष दीखते हैं। तथा मनु ने ही जब कि दान लेने से