पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२७ चतुर्थाऽध्याय ईये सर्वा ही निन्दित हैं, म्वाध्याय में क्या मांस भक्षण ब्रह्म- चारी. को विशेषतः और सामान्यता सवही को प्रथम निषिद्ध कर आये हैं और करेंगे। फिर मास वाकर बंद न पढे यह कथन कैसा निरंकुश है। अमावस्यादि का पाठ पर्व होने में ही वर्जित है। परन्तु गुरु शिष्य वा विद्या की हानि और नाश लिखना अनर्गल है। ब्रह्मचारी को मथुन ही प्राप्त है फिर मैथुन के वस्त्र धारे हुवे बेद पाठ निषेधकी क्या आवश्यकता है। प्राणिवध वर्जित है, तब वेदपाठी को उमकी प्राशा ही क्या है । १२४म ऋग्वद्रका दैवयजु को मानुष साम को पिन्य बताना मकल वैटिक मिद्धान्त के विरुद्ध है।नवेदों में इन ३ की कोई विशेषता पाई जाती है। १३१ व में माम और श्राद्धभाजी का अनध्याय प्रक्षेपक से भी पुनरुक्त है। १११ मेंनन्दन टीकाकार ने (गन्धोलपत्रस्नेहोगन्धञ्च) व्याख्यान कियाहै। यहपाठ भेदभी प्रक्षिप्रमाके मंशयको घड़ करना है)॥१३॥ उद्वर्तनमपस्नानं रिगमत्रे रक्तमेव च । ग्लेम्मनिष्ठयूनवान्तानि नाधिनिष्ठेत्तु कामनः ११३२१ उबटन के मैलकी पीठी ग्नानका पानी. मल, मूत्र, रक्तका पीक और यमन, इन के ऊपर जान कर खड़ा न होवे ।।१३।। वैरियं नोपसेवेत महायं चेष बैरिणः । ययामि सस्करं च परस्यैव च योपितम् । १३३॥ नीशमनायुग्यं लोके किञ्चन विद्यते । यासं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥१३४॥ शत्र और उसके सहायक से और अधर्मी चार तथा पराई स्त्री से मल न रखे ॥१३शा इस प्रकार का आयुक्षय करनेवाला