क्रिया ( अथवा “ला" धातु ) सकर्मक है; क्योंकि उसका फल "नौकर" कर्ता से निकलकर “चिट्ठी” कर्म पर पड़ता है। (अ) कर्ता का अर्थ है "करनेवाला"। क्रिया के व्यापार का करने- घाला (प्राणी वा पदार्थ) "कर्ता" कहलाता है। जिस शब्द से इस करनेवाले का बोध होता है, उसे भी (व्याकरण में) बहुधा "कर्ता" कहते हैं। जिन क्रियाओं से स्थिति वा विकार का बोध होता है, उनका फर्ता वह पदार्थ है जिसकी स्थिति वा विकार के विषय में विधान किया जाता है; जैसे, "स्त्री चतुर है।" "संत्री राजा होगया ।" (श्रा) क्रिया से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्ता से निकल- कर जिस वस्तु पर पड़ता है; उसे कर्म कहते हैं; जैसे, "सिपाही चोर - को पकड़ता है","नौकर चिट्ठी लाया" । पहले वाक्य में "पकड़ता है। क्रिया का फल कर्ता से निकलकर चोर पर पड़ता है; इसलिए "चार" कर्म है। दूसरे वाक्य में “लाया" क्रिया का फल चिट्ठी पर पड़ता है; इसलिए “चिट्ठी" कर्म है। १६१-जिस धातु से सूचित होनेवाला व्यापार और उसका फल कर्त्ता ही पर पड़े, उसे अकर्मक धातु कहते हैं; जैसे, “गाड़ी चली", "लड़का सोता है"। पहले वाक्य में "चला क्रिया का व्यापार और उसका फल “गाडी' कर्ता हो पर पड़ता है। इसलिए "चली” क्रिया अकर्मक है। दसरे वाक्य में "सोता है" क्रिया भी अकर्मक है क्योंकि उसका व्यापार और फल "लड़का" का ही पर पड़ता है।
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