जो न करें सो थोड़ा है।" 'सो' की अपेक्षा 'वह' वा 'वे' का प्रचार अधिक है।
(अ) “वह" वा "वे" के समान “सो" अलग वाक्य में नहीं आता और न उसका प्रयोग "जो" के पहले होता है; परंतु कविता में बहुधा इन नियमों का उल्लंघन हो जाता है; जैसे, "ला ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय ।"
" सो सुनि भयउ भूप उर सोचू ।”
१०८-जिस सर्वनाम से किसी विशेष वस्तु का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम दो हैं-कोई, कुछ। “कोई" और "कुछ" में साधारण अंतर यह है कि “कोई" पुरुष के लिए और "कुछ" पदार्थ या धर्म के लिए आता है।
१०६-काई-( दोनों वचन )।
इसका प्रयोग एकवचन में बहुधा नीचे लिखे अर्थो में होता है-
(अ) किसी अज्ञात पुरुष या बड़े जंतु के लिए; जैसे, "ऐसा न हो कि कोई आ जाय ।” “दरवाज़े पर काई खड़ा है।" "नाली में काई बोलता है।"
(आ) बहुत से ज्ञात पुरुषों में से किसी अनिश्चित पुरुष के लिए; जैसे, "है रे ! कोई यहाँ !"
"रघुवंशिन महँ जहँ कोउ होई । तेहि समाज अस कहहि न साई।"