यय स्व ( १०० ) में तुम्हारी गीदड़-भबकी नहीं चल सकती।" . "मेरे रनवास में चाहे जितनी रानियाँ हों, मुझे दो ही वस्तुएँ संसार में प्यारी होगी।' "मनुष्य बुद्धि-विषयक ज्ञान में चाहे जितना पारङ्गत हो जाय, परन्तु. उसके ज्ञान से विशेष लाभ नहीं हो सकता।" ... . (ई) स्वरूपवाचक-कि, जो, अर्थात्, याने, मानो। इन अव्ययों के द्वारा जुड़े हुए शब्दों वा वाक्यों में से पहले शब्द वा वाक्य का स्वरूप. ( आशय) पिछले शब्द वा वाक्य से जाना जाता है; इसलिए इन अव्ययों को स्वरूप- वाचक कहते हैं। ... . .... कि-जब यह अव्यय स्वरूपवाचक होता है, तब इससे किसी बात का केवल प्रारम्भं वा प्रस्तावना सूचित होती है; जैसे, "श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, अब आगे कथा सुनिए।" "मेरे मन में आती है कि इससे कुछ पूछू।". "बात यह है कि लोगों की रुचि एक सी नहीं होती।" . . . .: जो यह स्वरूपवाचक "कि का समानार्थी है, परन्तु उसकी अपेक्षा अब व्यवहार में कम पाता है । "प्रेमसागर" में इसका प्रयोग कई. जगह हुआ है; जैसे, "यही विचारो जो मथुरा और वृन्दावन में अंतर ही क्या है।" "उसने बड़ी भारी. चूक की जो तेरी मांग श्रीकृष्ण को दी।" अर्थात्-यह संस्कृत अव्यय किसी शब्द वा वाक्य का अर्थ सम- झाने में आता है; जैसे, "धातु के टुकड़े ठप्पे के होने से सिक्का अर्थात मुद्रा कहाते हैं।" "गौतम बुद्ध अपने पाँचों चेलों समेत चौमासे भर अर्थात् बरसात भर बनारस में रहा ।" "इनमें परस्पर सजातीय भाक
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