+ (५३ ) स्थानों में अत्यंत प्राचीन काल से आवश्यकतानुसार भिन्न भिन्न प्रकार के वस्त्र पहने जाते थे। वेदों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में सुई का नाम 'सूची*' या 'वेशी मिलता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में सुई के तीन प्रकार की अर्थात् लोहे, चाँदी, और सोने को होने का उल्लेख है। प्रग्वेद में कैंची को 'भुरिज' कहा है। सुश्रुत संहिता में वारीक डोरे से सीने 'सीव्येत् सूक्ष्मेण सूत्रेण' का वर्णन है। रेशमी चोगे को 'तार्य और ऊनी कुरते को 'शामूल ४' कहते थे । 'द्रापिण' भी एक प्रकार का सिया हुत्रा वस्त्र था, जिसके विषय में खायण लिखता है कि वह युद्ध के समय पहना जाता था। सिर्फ कपड़ा ही नहीं, चमड़ा भी लिया जाता था। चमड़े की भस्त्रो (घेली ) का भी वर्णन वैदिक साहित्य तक में मिलता है। अपने निर्दिष्ट काल से पूर्व की इन बातों को लिखने से हमारा अभिप्राय यही सिद्ध करना है कि हमारे यहाँ सीने की कला बहुत प्राचीन काल से विद्यमान थी। हमारे निर्दिष्ट समय में स्त्रियां का मामूली वन अंतरीय प्रर्यात साड़ी थी, जो आधी पहनी और श्राधी ओढ़ी जाती थी। बाहर जाने के समय उस पर उत्तरीय ( दुपट्टा ) रहता था। दियों नाचने के समय लहँगे जैसा जरी के काम का वस्त्र पहनती थी, जिसका नाम 'पेशल' था। मथुरा के कंकाली टोले सं मिली हुई भटग्वेद २ । ३२ । ५ ॥ विही; ७ । १८ । ६४ ॥ + तैत्तिरीय ब्राह्मण ३ । ६ । ६ ॥ Sऋग्वेद ८ । ४ । ६६ ॥ +अथवेद १८।४ । ३६ ॥ x जैमिनीय उपनिपद् ब्राह्मण । ।३८ । १ ॥ प्राग्वेद । । २५ । १६ ॥ । प्राग्वेद २ । ३ । ६ ।।
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