सामाजिक स्थिति प्राचीन भारतीयों के सामाजिक जीवन की सबसे मुख्य संस्था वर्ण-व्यवस्था है। इसी की भित्ति पर हिंदू समाज का भवन खड़ा है, जो अत्यंत प्राचीन काल से अनंत बाधाओं का वर्ण-व्यवस्था सामना करते हुए भी अव तक न टूट सका। हमारे निर्दिष्ट समय से बहुत पूर्व इस संस्था का विकास हो चुका था। वर्णव्यवस्था का उल्लेख यजुर्वेद तक में मिलता है। यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म ने वर्णाश्चम-व्यवस्था का विरोध कर इसको बहुत धक्का पहुँचाने का प्रयत्न किया, तथापि यह व्यवस्था नष्ट नहीं की जा सकी और हिंदू धर्म के पुनरभ्युदय के साथ साथ इस संस्था की भी फिर उन्नति हुई। हमारे निर्दिष्ट समय में यह व्यवस्था बहुत अच्छी तरह प्रचलित थी। हुएन्संग चारों वर्गों का उल्लेख करता है। बौद्ध भिक्षुओं और जैन साधुओं का वर्णन हम पहले कर चुके हैं। अब हम क्रमशः समाज के सव विभागों पर संक्षेप से विचार करेंगे। ब्राह्मणों का समाज में सबसे अधिक सम्मान था। शिक्षा और विद्या में येही सबसे बड़े चढ़े थे सव वर्ण इनकी प्रधानता मानते थे। बहुत से कार्य प्रायः ब्राह्मणों के ब्राह्मण और उनके कर्तव्य लिये ही सुरक्षित रहते थे। वे शासन-कार्य में भी पर्याप्त भाग लेते थे। प्रायः मंत्री तो ब्राह्मण ही होते थे और कभी कभी वे सेनापति भी बनते थे। अबुज़ैद उनके विषय में लिखता है-"धर्म और विज्ञान में प्रयत्न करनेवाले व्यक्ति ब्राह्मण
- चाटर्स श्रान युवनच्वांग; जि० १, पृ० १६८ ।