पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/५५

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( २४ ) शिष्य कल्लट ने, जो अवन्तिवर्मा (८५४ ई० ) के समय में था, स्पन्द- कारिका के नाम से की। इनका मुख्य सिद्धांत यह था कि पर- मात्मा मनुष्यों के कर्मफल की अपेक्षा न कर अपनी इच्छा से ही किसी सामग्री के बिना सृष्टि को पैदा करता है। काश्मीर में सामानंद ने दसवीं सदी में शैव संप्रदाय की एक शाखा-प्रत्यभिज्ञा संप्रदाय-का प्रचार किया। उसने 'शिवदृष्टि' नामक ग्रंथ लिखा। इसमें और प्रथम शाखा में अधिक भेद नहीं है। जिस समय वैष्णवधर्म अहिंसा आदि को लिए हुए नए रूप में आंध्र और तामिल प्रदेश तथा पूर्व में शैव संप्रदाय के विरोध में फैल रहा था, उस समय कर्नाटक में एक नवीन शैव संप्रदाय का जन्म हुआ। कानड़ी भाषा के 'बसव पुराण' से पाया जाता है कि कलचुरि राजा विज्जल के समय ( बारहवीं सदी ) में वसव नामक ब्राह्मण ने जैनधर्म को नष्ट करने की इच्छा से लिंगायत ( वीर शैव ) मत चलाया। उसके गुणों को देखकर विजल ने उसे अपना मंत्री नियत किया और वह जंगमों ( लिंगायत संप्रदाय के धर्मोपदेशकों ) के लिये बहुत द्रव्य खर्च करने लगा। डाक्टर फ्लीट के कथनानुसार एकांत इस संप्रदाय का प्रवर्तक था, बसव तो इसका एक उत्तम प्रचा- रक मात्र था । ये जैनों के शत्रु थे और उनकी मूर्तियाँ फिंकवाते थे इस संप्रदाय में अहिंसा को मुख्य स्थान दिया गया था। इसमें हिंदू समाज के प्रधान अंग वर्णव्यवस्था को कोई स्थान नहीं मिला और न संन्यास या तप को ही कोई मुख्यता प्राप्त हुई। कहा कि प्रत्येक प्राणी को, चाहे वह जंगम ही क्यों न हो, अपने श्रम से कमाना चाहिए, न कि भीख माँगकर। उसने सदाचार पर भी वौद्धों और जैनों की अपेक्षा कम ध्यान नहीं दिया। भक्ति इस संप्रदाय की विशेषता थी। लिंग का चिह्न इस संप्रदाय का सबसे बड़ा चिह्न इस संप्रदाय के लोग अपने गले में शिवलिंग लटकाए रहते हैं बसव ने