पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/४३

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. मानते हैं। मध्व के अनुयायी मस्तक पर दो सफेद सीधी रेखाएँ डालकर बीच में एक काली रेखा खींचते हैं और मध्य में लाल बिंदु लगाते हैं। इनके वक्षों पर भी बहुधा शंख, चक्र, गदा आदि के चित्र अंकित होते हैं। इस संप्रदाय का प्रचार दक्षिणी कर्नाटक में अधिक है। मध्वाचार्य के बाद भी वैष्णवों में वल्लभ आदि संप्रदायों का उदय हुआ, परंतु वे हमारे समय से पीछे के हैं। विष्णु की मूर्ति पहले चतुर्भुज होती थी या द्विभुज, इसका ठीक निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि पाँचवीं शताब्दी के पूर्व की बनी हुई उनकी कोई मूर्ति नहीं मिली। बुद्ध विष्णु की मूर्ति और सूर्य की सव मूर्तियाँ द्विभुज मिलती है और कडफिसिस के पहली शताब्दी के सिक्के पर वैल के पास खड़ी हुई त्रिशूलधारी शिव की मूर्ति बनी है, जो बुद्ध के समान द्विभुज ही है। जैसे हिंदुओं ने बुद्धावतार की मूर्ति को चतुर्भुज बना दिया वैसे ही विष्णु और शिव की मूर्तियाँ पीछे से चतुर्भुज बनी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। भिन्न भिन्न प्रकार की मूर्तियों के बनने के प्रवाह में विष्णु की चौदह और चौबीस हाथवाली मूर्तियों की कल्पना भी की गई और उनके हाथों में भिन्न भिन्न आयुध दिए गए। ऐसी भी कुछ मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। विष्णु की त्रिमूर्तियाँ तीन मुखवाली भी मिली हैं, जिनमें या तो किरीट सहित विष्णु के तीन मुख प्रदर्शित किए गए या मध्य में विष्णु और दोनों ओर क्रमशः वराह और नृसिंह की मूर्तियाँ बनाई गई। शायद ये मूर्तियाँ शिव की त्रिमूर्ति का अनुकरण हो । विष्णु के समान शिव की भी उपासना और पूजा शुरू हुई और उसके उपासक उसी को सृष्टि का कर्ता धर्ता और हर्ता मानने लगे। इस संप्रदाय के ग्रंथ 'आगम' नाम से प्रसिद्ध हुए। इस मत को

  • सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर-रचित; वैष्णविज्म, शैविज्म एंड

अदर माइनर रिलिजस सिस्टम्स; पृ० ५७-६१ ।