, , ( ११ ) चैतन्य गुणवाले हैं। काल, स्वभाव, नियति, कर्म और उद्यम उत्पत्ति के मुख्य कारण हैं। इन्हीं पाँच निमित्तों से परमाणु ( पुद्गल ) नियमपूर्वक आपस में मिलते हैं, जिससे जगत् की प्रवृत्ति होती है और यही कर्म के फल देते हैं। जीव के साथ कर्मों का संयोग रहने से उनके भोग के वास्ते वह बार बार शरीर धारण करता है जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र द्वारा कर्मों के वंधन से छूटकर अपने रूप में स्थित होता है। ये तीनों जैन धर्म के रत्न हैं। मुक्ति का मुख्य साधन केवल ज्ञान है। शरीर छोड़ने के वाद मुक्त चौसठ हजार योजन लंबी शिला पर अधर में स्थित होकर सदा अपने ही ज्ञान में लोकालोक देखता हुआ आनंद से रहता है। जैन लोग सृष्टि का कर्ता ईश्वर को नहीं मानते। उनके मतानुसार यह सृष्टि अनादि और अनंत है। प्रलय होने के समय वैताठ्य पर्वत में सब प्रकार के जीवों के जोड़े रह जाते हैं, उन्हीं से फिर सृष्टि का प्रारंभ होता है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द और क्रिया से रहित अतींद्रिय, अविनाशी, अनुपाधि, अवंध, अक्लेशी, अमूर्ति, शुद्ध चैतन्य रूप आत्मा ही निश्चय देव है। इससे पृथक कोई ईश्वर नहीं। आत्मस्वरूप का यथार्थ बोध करनेवाला मनुष्य ईश्वरपद को प्राप्त हो जाता है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के साथ पंच महाव्रत (अहिंसा, सत्य-भाषण, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा क्षमा, निरभिमानता, तृष्णात्याग, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और ब्रह्मचर्य आदि श्रमणधर्मों का पालन करनेवाला गुरु होता है। दया और अहिंसा जैनों का मुख्य धर्म है; वे वेदों को नहीं मानते। उनमें व्रत उपवास और तपस्या का विशेष महत्त्व है। कई देवी देवताओं को भी जैनी मानते हैं। कई साधुओं आदि के अनशन व्रत से प्राण छोड़ने के उदाहरण भी मिले हैं।
- जगमंदिरलाल जैनी, प्राउट लाइंस आफ जैनिज्म; पृष्ट ७-६६