1 (१६) इन चारों स्थानों में जो भारतीय प्राचीन मित्र मिले। वही हमारे निर्दिष्ट फाल तया उससे फार पूर्व के मार्ग नित्रकला के सर्वोत्कृष्ट घचे खुचे नगून है। पान त यह कि गरी उष्णता वालं स्थानों में बारह तेरह सौ वर्ष तक के नित्र विगढ़ते विगढ़त भी किसी प्रकार प्रच्छी स्थिति में गा भार उन्हों से भारत की प्राचीन समुन्नत चित्रकला की जमता का अनुमान है। इस समय के पीछे एनुमान ६०० वर्णनफ भारतीय चित्रकला का इतिहास अंधकार में ही है, क्योंकि उस समय कोई चित्र नहीं गिले, परंतु चीनी तुर्फिन्तान के पातान प्रदेश, भारतीय शिल्पकल्टा दनदनयूलिक पार मीरन स्थानों से दीवारों, का शन्य देशों में प्रभाव काठफलको या रेशम श्रादि पर अंकित जो चित्र मिले हैं, वे चौथी से ग्यारहवीं शताब्दी तक के ग्रासपास के अनुमान किए जा सकते हैं। उनमें भारतीय चित्रकला का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है। जैसे लंका में भारतीय सभ्यता फैली हुई थी, वैसे मध्य एशिया में तुर्किस्तान या उससे परे तक भारतीय सभ्यता का विस्तार था और भिर भिन्न भारतीय शालों तथा कलाओं आदि का वहाँ प्रचार हो गया था। भारतीय चित्रकला यूरोपीय चित्रकला की तरह रूप-प्रधान न होकर भावप्रधान है। हमारे चित्रकार बाहरी अंग प्रत्यंगों की सूक्ष्मता तथा सुंदरता पर उतना विशेप ध्यान भारतीय चित्रकला की विशेषता नहीं देते, जितना यूरोपवाले। वे उसके प्रांतरिक और मानसिक भावों को प्रदर्शित करने में ही अपना प्रयत्न सफल समझते हैं। व्यक्त के भीतर जो अव्यक्त की छाया छिपी हुई है, उसको प्रकाशित करना ही भारतीयों का मुख्यतम उद्देश्य रहा है। वस्तु के रूप से उन्हें उतनी परवाह नहीं, जितनी मूलभाव को स्पष्ट करने से थी। .
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