(१८२) हो चुकी थी। इस ग्रंथ में नगर, दुर्ग प्रादि के लिये उचित भूमि का वर्णन, शहर बसाने, उसके चारों और खाई वनानं, राजा के भिन्न भिन्न प्रकार के महल, उचान तथा मूर्तियों आदि बनाने का विस्तृत और महत्त्वपूर्ण वर्णन है, जो हम यहां विस्तार भय से नहीं करते। उक्त पुस्तक का ३१ वा अध्याय-यंत्राध्याय-बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसमें भिन्न भिन्न प्रकार के बहुत से यंत्रों वैज्ञानिक उन्नति का वर्णन है। उनमें सं हम कुछ का उल्लेख नीचे करते हैं- यंत्र द्वारा सूर्य की प्रदक्षिणा और ग्रहों की गति बताई जाय । कृत्रिम पुरुप यंत्र द्वारा परस्पर लड़ते. चलते फिरते और बंसी वजाते थे। स्वयं पक्षियों की सी आवाज करनेवाले लकड़ी के पक्षियों और कंकणों तथा कुंडलों के बनाने का भी उसमें उल्लेख है। लकड़ी के ऐसे मनुष्य बनाए जायें, जो गुप्त रूप से सूत्र-द्वारा नृत्य करें, परस्पर लड़ें और चोरों को पीटें। भिन्न भिन्न प्रकार के सुंदर फव्वारे बनाकर धारागृहों में लगाए जायें । ऐसी स्त्री वनाई जाय, जिसके स्तनों, नाभि, अांखों और नखों से जलधाराएँ बहें। यंत्रों से शतन्नी और उष्ट्रग्रीव आदि दुर्गरक्षक अस्त्र चलाए जायँ । कृत्रिम झरने भी बागों में बनाए जायँ । आधु- निक 'लिपट' जैसे यंत्र का भी वर्णन उसमें है, जिसके द्वारा एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाया जाता था। दिए की एक ऐसी पुतली बनाई जाय, जो दीपक में तेल घट जाने पर उसमें तेल डाल दे और स्वयं ताल की गति से नाचे । एक ऐसे यांत्रिक हाथी का भी वर्णन है, जो पानी पीता जाय, परंतु यह मालुम न हो कि पानी कहाँ जाता है। इस प्रकार के कई अद्भुत अद्भुत यंत्रों का वर्णन उसमें मिलता है, परंतु सबसे अधिक आश्चर्यप्रद और महत्त्वपूर्ण वात एक . , 7
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