पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२४७

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- ( १८०) (पंजाब) नगर के रहनेवाले दिय ( Dion ) के पुत्र हेलियादार ( IIoliodoros ) ने, जो भागवत ( वैष्णव ) या, देवताओं के देवता वासुदेव ( विष्णु ) का यह 'गरुड़ध्वज' बनवाया " अश्वमेध यज्ञ करनेवाले पाराशरी-पुत्र सर्वतात ने नारायणवट नामक स्थान पर भगवान् संकर्षण और वासुदेव की पूजा के लिये शिला-प्राकार वनवाया, ऐसा ई० स० पूर्व की दूसरी शताब्दी के नगरी के अपूर्ण शिलालेख से पाया जाता है। बौद्धों में मूर्तिपूजा का प्रचार महायान संप्रदाय के साथ ईरवी सन् की पहली शताब्दी के आस- पास होना पाया जाता है, परंतु मूर्तिपूजा के उपर्युक्त दोनों उदाहरण ईसा से पूर्व के हैं। इसी तरह ई० सन् की छठी शताब्दी तक की सैकड़ों मूर्तियाँ मिली हैं, जिनका संबंध हमारे निर्दिष्ट समय से नहीं है। हमारे समय की हजारों हिंदू और जैन देवमूर्तियां मिलती हैं और कलकत्ता, लखनऊ, पेशावर, अजमेर, मद्रास, वंबई आदि के अद्भुतालयों तथा स्थान स्थान के मंदिरों आदि में विद्यमान हैं। ऐसे ही कई एक राजाओं की और धर्माचार्यों की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। अत्यंत भावपूर्ण और सुंदर कारीगरी को देखकर इनमें से बहुत सी मूर्तियों की अनेक विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है, परंतु यह बात निश्चित है कि ई० सन् की वारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पापाण के शिल्प-कार्य में क्रमशः हास होता गया और मूर्तियाँ तथा खुदाई का काम जैसा सुंदर पहले वनता था, वैसा पिछले समय में न बन सका। भारतीय शिल्पकला के संबंध में यहाँ कुछ विद्वानों के कथन उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। मिस्टर हैवेल ने लिखा है-"किसी भी जाति के शिल्प का ठीक ठीक अनुमान करने में उस जाति ने दूसरों से क्या सीखा है, यह सोचने की हमें आवश्यकता नहीं, किंतु यह सोचने की आव-