पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२१५

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(१६२) उल्लेख मिलता है। भूमि और कृषि प्रादि की भी व्यवस्था पूर्ववत् थी। क्षेत्रपाल और प्रांतपाल स्यादि कई अधिकारियों के नाम मिलते हैं। आय-व्यय विभाग भी पहले की तरह ही ना। न्यायालयों की भी व्यवस्था अच्छी थी राजा की अनुपस्थिति में प्राड-विवाक (न्याया- धीश ) काम करता था। अलबरूनी ने गुकदमों के विषय में लिखा है-'अभियोग उपस्थित करते हुए वादी अपनी पुष्टि में प्रमाण देता था। यदि कोई लिखित प्रमाण न हो तो कम से कम चार गवाह चाहिए। उन्हें जिरह की आज्ञा नहीं दी जाती थी। ग्रामणों और क्षत्रियों को हत्या के अपराध में प्राणदंड नहीं दिया जाता था। उनकी संपत्ति लूटकर उन्हें देश निर्वासित कर दिया जाता था: चारी के अपराध में ब्राह्मण को अंधा करके उसका बायाँ हाथ और दहिना पैर फाट दिया जाता था। क्षत्रिय अंधा नहीं किया जाता या '। इससे जान पड़ता है कि उस समय तक भी क्रूर दंड देने की प्रथा विद्यमान यो । सैनिक व्यवस्था में भी कुछ परिवर्तन हो रहा था। राजाओं के पास अपनी स्थिर सेना रखने का रिवाज कम हो रहा था, परंतु सरदारों और जागीरदारों के पास सेनाएँ रखने और युद्ध के समय पर उनसे सेनाएँ लेने की रीति का प्रचार बढ़ रहा था। भिन्न भिन्न राज्यों की सेवा में दूसरे राज्यों के वीर सिपाही भरती किए जाते थे। पिछले ताम्रपत्र आदि से भी मालूम होता है कि इस समय भी महासेनापति और हाथियों, घोड़ों, ऊँटों, जल-सेना के भिन्न भिन्न अफ. सर, प्रेषणीक, गमागमिक आदि अधिकारी रहते थे। भिन्न भिन्न राज्यों के पारस्परिक द्वेप और शत्रुता के कारण सब राष्ट्र निर्बल हो गए थे। सिंध तो आठवीं सदी में ही मुसलमानों . .

  • अलबेख्नीज इंडिया; जि. २, पृ० १५८-६३ ।

+ चिंतामणि विनायक वैद्य; हिस्ट्री श्राफ मिडिएवल इंडिया; जिल्द ३, पृ० ४७०॥