पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१९८

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नंतर धातुपाठ, (१४५) पहले व्याकरण का विशेप अध्ययन करना पड़ता था। इत्सिग ने व्याकरण के कई ग्रंथों का भी वर्णन किया है। पहले नवीन वालकों को छः वर्ष की आयु में वर्णबोध की सिद्ध शिक्षा का क्रम रचना (सिद्धिरस्तु) पढ़ाई जाती थो। इसमें छः मास लग जाते थे। इसके बाद पाणिनि की अष्टाध्यायी रटाई जाती थी, जिसे विद्यार्थी आठ मास में कंठस्थ कर लेते थे। तद- जो अनुमान १००० श्लोकों का है, पढ़ाकर दस वर्ष की अवस्था में नामों और धातुओं के रूप, उणादि सूत्र प्रादि का अध्ययन कराया जाता था, जो तीन वर्ष में समाप्त हो जाता था। तत्पश्चात् जयादित्य और वामन की 'काशिकावृत्ति' की अच्छी तरह शिक्षा दी जाती थी। इत्सिंग लिखता है कि भारत में अध्य- यन करने के लिये आनेवालों को इस व्याकरण ग्रंघ का पहले पहल अध्ययन आवश्यक है; ऐसा न करने पर सारा परिश्रम निष्फल होगा। ये सब ग्रंथ कंठस्थ होने चाहिएँ । इस वृत्ति का अध्य- यन कर चुकने के पश्चात् विद्यार्थी गद्य और पद्य की रचना प्रारंभ करते थे और हेतुविद्या तथा अभिधर्म कोप में लग जाते छ । 'न्याय-द्वार-तारक शास्त्र' ( नागार्जुन की बनाई हुई हेतुविद्या की भूमिका) के अध्ययन से वे ठीक तौर पर अनुमान कर सकते थे और 'जातकमाला' के अध्ययन से उनकी ग्रहण शक्ति बढ़ती थी। इतना पढ़ चुकने पर विद्यार्थियों को विवाद करने की भी शिक्षा दी जाती थी, परंतु अभी व्याकरण का अध्ययन समाप्त नहीं होता। इनके वाद महाभाष्य पढ़ाया जाता था प्रौढ़ विद्यार्थी इसे तीन वर्ष में सीख लेता था। इसके अनंतर भर्तृहरि की 'महाभाप्य की टीका' और 'वाक्यप्रदीप' पढ़ाई जाकर उन्हें 'पेइन' (संभवत: संस्कृत की वेडावृत्ति ) की शिक्षा दी जाती थी। मूल ग्रंथ भर्तृहरि ने ३००० श्लोकों में लिखा, जिसकी टीका धर्मपाल ने १४००० श्लोकों में की म०-१६ -- .