. ' (१३६ ) महाराष्ट्री प्राकृत का नाम महाराष्ट्र देश से पड़ा। इस भाषा का उपयोग विशेप कर प्राकृत काव्यों के लियं होता था। हाल की 'सतसई' (सप्तशती), प्रवरसेनकृत 'रावणवहो' महाराष्ट्री ( सेतुबंध ), वाक्पतिराज फा 'गौड़वहो' तथा हेमचंद्र का 'प्राकृतमाश्रय' आदि काव्य तथा 'वन्नालग्ग' नामक प्राकृत का सुभापित ग्रंथ इसी भापा में लिखे गए हैं। राजशेखर की 'कर्पूर- मंजरी' में, जो विशुद्ध प्राकृत का सट्टक है, हरिउद्ध ( हरिवृद्ध ) और नंदिउद्ध ( नंदिवृद्ध ), पोतिप आदि प्राकृत लेखकों के नाम मिलते हैं, परंतु उनके ग्रंथों का पता नहीं चला। महाराज भोज- रचित 'कूर्मशतक' तथा दूसरा 'कूर्मशतक', जिसके कर्ता का नाम मालूम नहीं हुआ और जो दोनों शिलानों पर खुदे हुए धार में भोज की वनवाई हुई 'सरस्वती-कंठाभरण' नामक पाठशाला से मिले हैं, महाराष्ट्री में हैं। महाराष्ट्री का एक भेद जैन महाराष्ट्री है, जिसमें श्वेतांबरों की कथा, जीवन-चरित आदि के संबंध में ग्रंथ मिलते हैं। जोधपुर राज्य के घटियाला गाँव से मिला हुआ मंडोर के प्रतिहार राजा कक्कुक का ई० स०८६१ का शिलालेख भी इसी भापा में लिखा गया है। पैशाची भाषा काश्मीर तथा भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर विभाग की लौकिक भापा थी। इसका प्रसिद्ध ग्रंथ गुणाढ्य की 'वृहत्- कथा' है, जो अब तक उपलब्ध नहीं हुआ। पैशाची संस्कृत में उसके दो कविताबद्ध संक्षिप्त अनु- वाद काश्मीर में हुए, जो क्षेमेंद्र और सोमदेव-द्वारा किए गए थे । आवंतिक भाषा अवंती देश अर्थात् मालवा की थी। इसको चूलिका-पैशाची या भूतभापा भी कहते थे, श्रावंतिक जिसका प्रयोग 'मृच्छ-कटिक' आदि में पाया । राजशेखर एक प्राचीन श्लोक उद्धृत करता है, जिसमें जाता है
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