( १२६ ) हैं। वे संगीत के पुराने आचार्य माने गए हैं। अपने समय से पूर्व का यह परिचय देने से हम जान सकेंगे कि हमारे निर्दिष्ट समय तक संगीत का बहुत कुछ विकास हो चुका था । हमारे निर्दिष्ट काल में भी संगीत पर बहुत से ग्रंथ लिखे गए, जो आज उपलब्ध नहीं हैं, परंतु उनका पता संगीताचार्य शाङ्गदेव के 'संगीतरत्नाकर' से लगता है। वह उपर्युक्त नामों के अतिरिक्त हमारे काल के रुद्रट ( ८५० ई.), नान्यदेव ( १०६६ ई. ), राजा भोज (११ वीं शताब्दी ), परमर्दी ( चंदेल, ११६७ ई.), सोमेश ( १९७० ई.), जगदेकमल्ल ( ११३८ ई०), लोल्लट, उद्भट (८०० ई०), शंकुक, अभिनवगुप्र (६६३ ई० ) और कीर्तिधर तथा दूसरे संगीताचार्यों का भी उल्लेख करता है। 'संगीतरत्नाकर' देवगिरि के यादव राजा सिंघण के, जिसका राज्याभिषेक ई० स० १२०७ में हुआ था, दरबार के गायनाचार्य शाङ्गदेव ने लिखा था अतएव वह हमारे काल की संगीत की स्थिति का वोधक है उसमें शुद्ध सात और विकृत बारह स्वर, वाद्यादि के चार भेद, स्वरों की अति और जाति, ग्राम, मूर्छना, प्रस्तार, राग, गायन, गीत के गुण दोप, ताल, नर्तन और इस समय तक प्रचलित वाद्यों के नाम आदि संगीत- संबंधी अनेक ज्ञातव्य एवं उपयोगी वातों का वर्णन किया गया है, जिनसे हमारे निर्दिष्ट समय के संगीत-ज्ञान की उन्नत अवस्था का पता चलता संगीत के तीसरे अंश नृत्य का भी वैज्ञानिक पद्धति पर पूर्ण विकास हो चुका था । अष्टाध्यायीकार पाणिनि ( ६०० ई० पूर्व ) के समय में भी शिलाली और कृशाश्व के नट-सूत्र विद्यमान थे। भरत का नाट्यशास्त्र प्रसिद्ध है उसके अतिरिक्त दंतिल, कोहिल आदि के नाट्य-नियमों के ग्रंथ मिलते नाट्यशास्त्र के आधार पर भास, कालिदास, भवभूति आदि म०-१७ aha नृत्य .
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