( ११२ ) और छठे से १००००० का वध होता है। इसी से इस संख्या. सूचक क्रम को दशगुणोत्तर संख्या कहते हैं और वर्तमान समय में वहुधा संसार का अंक-क्रग यही है। यह अंक-क्रम भारतवासियों ने कब निकाला इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता। प्राचीन शिला- लेखों और दानपत्रों के लिखनेवालों ने पुराने ढर्रे पर चलकर ई० स० की छठी शताब्दी तक के लेखादि में पुरानी शैली से ही अंक दिए हैं। सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक के शिलालेखादि लिखनेवालों में से किसी ने प्राचीन तो किसी ने नवीन शैली का अनुकरण किया है; परंतु गणितकार नवीन क्रम का व्यवहार छठी शताब्दी के बहुत पहले से करने लगे थे। वराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका' में सर्वत्र अंक नवीन शैली से ही दिए गए हैं। इससे निश्चित है कि ई० स० की पांचवीं शताब्दी के अंत में तो ज्योतिषी लोग नवीन शैली के अंकों का व्यवहार करते थे। भट्टोत्पल ने 'वृहत्संहिता' की टीका में कई जगह 'पुलिशसिद्धांत' से, जिसका वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है, वचन उद्धृत किए हैं। उसने एक और स्थान पर 'मूल पुलिशसिद्धांत' के नाम से एक श्लोक भी उद्धृत किया है। उन दोनों में अंक वर्तमान शैली से ही मिलते हैं। इससे जान पड़ता है कि वराहमिहिर के पूर्व भी इस शैली का प्रचार था। योग सूत्र के प्रसिद्ध भाष्य में व्यास ने ( ई० स० ३०० के आसपास.) दशगुणोत्तर अंक-क्रम का बहुत स्पष्ट उदाहरण दिया है। जैसे एक का अंक '१', सैकड़े के स्थान पर १०० के लिये, दहाई के स्थान पर १० के लिये और इकाई के स्थान पर एक के लिये प्रयुक्त होता है। बख्शाली गाँव ( युसुफजई जिले, पंजाव में ) से भोजपत्र पर लिखी हुई एक प्राचीन पुस्तक जमीन में गड़ी हुई मिली है, जिसमें अंक नवीन शैली से ही दिए हैं। प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर हॉर्नली ने उसका रचना-काल तीसरी अथवा चौथी शताब्दी होना
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