. , . > ( ११० ) मुड़ी हुई) लकीर जोड़ी जाती थी और ३०० के लिये वैसी ही दो लकीरें, ऐसे ही EEEEE लिखने हों तो ६००००, ६०००, ६००, ६० और लिखते थे। भारतवर्ष में अंकों की यह प्राचीन शैली कब सं प्रचलित हुई, इसका पता नहीं चलता, परंतु अशोक के सिद्धापुर, सहस्राम और रूपनाथ के लेखों में इस शैली के २००, ५० तथा ६ के अंक मिलते हैं, जिनमें २०० का अंक तीनों लेखों में विलकुल ही भिन्न प्रकार का है और ५० तथा ६ के दो दो प्रकार के रूप मिलते हैं। भारतवर्ष के इस जटिल अंक-क्रम की अपेक्षा मिश्र का सबसे पुराना अंक-क्रम हिएरोग्लिफिया ( चित्रलिपि ) अधिक जटिल था। उसमें मूल अंकों के चिह्न केवल तीन अर्थात् १, १० और १०० के थे। इन्हीं तीन चिह्नों को कई बार लिखने से ६ तक के अंक बनते थे। १ से ६ तक के अंक एक के चिन ( खड़ी लकीर ) को क्रमशः १ से वार लिखने से वनते थे। ११ से १६ तक के लिये १० के चिह्न के बाई ओर क्रमश: १ से ६ तक खड़ी लकीरें खींचते थे २० के लिये १० का चिह्न दो वार और ३० से १० तक के लिये क्रमश तीन से नौ वार लिखा जाता था। २०० बनाने के लिये १०० के चिह्न को दो बार लिखते थे। उसी तरह तीन सौ के लिये तीन वार लिखते थे। इस क्रम में १००० से १०००० के लिये भी एक एक चित्र था और लाख के लिये मेंढक और दस लाख के लिये हाथ फैलाए हुए पुरुप का चित्र था। मिस्र का सबसे पुराना अंक- क्रम यही था, जो हमारे अंक-क्रम से भी अधिक जटिल और गणना की बिलकुल प्रारंभिक अवस्था का सूचक था। फिनिशियन अंक भी इसी से निकले हैं, जिनका क्रम भी ऐसा ही है, केवल दस के चिह्न को धार वार लिखने की रीति को कुछ सरल बनाने के लिये उसमें २० के अंक के लिये नवीन चिह्न बनाया -
पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१६१
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