u (१०३) होता था। ईसा से भी पूर्व वृद्ध-गर्ग-संहिता और जैनियों की सुरीय- पन्नति आदि ज्योतिष के ग्रंथ वन चुके थे। आश्वलायनसूत्र, पार- स्कर गृह्य सूत्र, महाभारत और मानवधर्मशास्त्र आदि ग्रंथों में ज्योतिप की बहुत सी बातें उद्धरण रूप में भाती हैं। ईसा के बाद का सबसे प्रथम और पूर्ण ग्रंथ सूर्य-सिद्धांत था, जो अब उपलब्ध नहीं है। उसका पूरा वर्णन वराहमिहिर ने अपनी 'पंचसिद्धांतिका' में किया है, वही उपलब्ध है। वर्तमान सूर्य-सिद्धांत उससे भिन्न और नवीन है। वराहमिहिर ने ( ५०५ ई० ) अपनी 'पंचसिद्धांतिका' में प्राचीन प्रचलित पाँच सिद्धांतों-पुलिश, रोमक, वसिष्ठ, सौर (सूर्य) और पितामह-का करण रूप से ( जिसमें अंकगणित की सहायता से ही ज्योतिष गणना हो सकती है और ज्याचाप कर्म की आवश्यकता नहीं रहती ) वर्णन किया है और लाटाचार्य, सिंहाचार्य तथा उसके गुरु, आर्यभट, प्रदुम्न और विजयनंदी के मतों को उद्धृत किया है, जिससे पाया जाता है कि ये विद्वान उससे पूर्व के हैं; परंतु खेद है कि अव आर्यभट के अतिरिक्त अन्य किसी का ग्रंथ नहीं मिलता । आर्यभट ने, जिसका जन्म ४७६ ई० में हुआ था, 'आर्यभटीय' लिखा। उसने सूर्य और तारों के स्थिर होने तथा पृथिवी के घूमने के कारण दिन और रात होने का वर्णन किया है। उसने पृथिवी की परिधि ४६६७ योजन अर्थात् २४८३५ मील बताई है। उसने सूर्य और चंद्र के ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों की भी व्याख्या की है । इसके बाद एक दूसरा आर्यभट भी हुआ, जिसने 'आर्यसिद्धांत' लिखा और जिसका भास्कराचार्य ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है। वराहमिहिर के पाँच सिद्धांतों में से रोमक सिद्धांत बहुत संभ- वतः ग्रीक सिद्धांत है। भारतीय ज्योतिष और यूनानी ज्योतिष में बहुत से सिद्धांत परस्पर मिलते हैं। यह निश्चित करना कठिन है कि किसने किससे कितना सीखा।
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