(१००) में हो, किसी रूप में न हो), (४) स्यादवक्तव्यं ( संभवतः शब्दों से उसका वर्णन न किया जा सकता हो ), (५) स्यादस्ति चावक्तव्यं ( संभवतः हो और शब्दों से उसका वर्णन न किया जा सकता हो), (६) स्यान्नास्ति चावक्तव्यं ( संभवतः न हो और उसका वर्णन न किया जा सकता हो ), (७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं ( संभ- वतः किसी रूप में हो, किसी रूप में न हो पर अवर्णनीय हो)। हर एक कोटि संभावना या संशयावस्था में ही हमारं ज्ञान की बाधक है। यदि हम भारतवर्ष के इन छ: सौ वर्षों के दार्शनिक इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम देखते हैं कि सभी संप्रदाय विकास पर है। यदि अद्वैतवाद अपने शिखर पर है, तो द्वैत- तत्कालीन दार्शनिक वाद भी कम उन्नति नहीं कर रहा है। एक उन्नति का सिंहावलोकन और यदि मोक्ष, ईश्वर आदि आध्यात्मिक बातों की चर्चा जोरों पर थी तो दूसरी ओर चारवाकों का यह कथन- यावज्जीचं सुख जीवेत भरणं कृत्वा पृत पियेत् । भरमीभूतस्य देहस्य पुनरागमन युतः ॥ चल रहा था। इधर वेदांत, न्याय, योग आदि संप्रदाय ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर रहे थे, तो उधर सांख्य संप्रदाय निरीश्वर- वाद के प्रचार में लगा हुआ था। पूर्व मीमांसक यदि कर्मकांड का प्रतिपादन कर रहे थे, तो वेदांती ज्ञान द्वारा ही मोक्ष-प्राप्ति सिद्ध कर रहे थे। भारत की इस दार्शनिक उन्नति का युरोपीय दर्शन शास्त्र पर क्या प्रभाव पड़ा, यह एक बड़ा विस्तृत विषय है और हमारे विषय युरोपीय दर्शन पर से यह कुछ वाहर भी है। हमें तो केवल भारतीय दर्शन का प्रभाव ६०० से १२०० ई० तक के काल पर विचार करना है और हमारे दर्शनशास्त्र का जो प्रभाव युरोपीय दर्शन पर पड़ा है, वह इस काल से विशेप संबंध नहीं
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