. योग में छब्बीस तत्त्व माने गए हैं। छब्बीसवाँ तत्त्व क्लेश, कर्मवि- पाक आदि से पृथक, ईश्वर है। इसमें योग के उद्देश, अंग तथा ईश्वर की प्राप्ति के साधनों पर पूरा विचार किया गया है। योग संप्रदाय के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, ये पाँच प्रकार के क्लेश मनुष्य को होते हैं; और कर्मों के फलानुसार उसे दूसरा जन्म लेना पड़ता है। इनसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग है। क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर नित्य, मुक्त, एक, अद्वितीय और त्रिकालातीत है । संसार दुख:- मय और हेय है। योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणा- याम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य है। सृष्टि तत्त्व आदि के संबंध में योग का भी प्राय: वही मत है, जो सांख्य का है। इससे सांख्य को ज्ञानयोग और योग को कर्मयोग कहते हैं। इस दर्शन का भारतीय जीवन पर पर्याप्त असर पड़ा। वहुतों ने योग की शिक्षा प्राप्त की। योग सूत्रों के 'व्यासभाष्य' की वाच- स्पति मिश्र ने एक प्रामाणिक टीका लिखी। विज्ञानभिक्षु का 'योग- सार-संग्रह भी एक प्रामाणिक ग्रंथ है राजा भोज ने योग सूत्रों पर एक स्वतंत्र वृत्ति लिखी। पीछे से योग शास्त्र में तंत्र का बहुत मेल मिलाकर कायव्यूह का विस्तार किया गया और शरीर के अंदर कई चक्र कल्पित किए गए। हठयोग, राजयोग, लययोग आदि विषयों पर भी पीछे से कुछ ग्रंथ लिखे गए। कुछ विद्वानों का मत है कि पहले मीमांसा का नाम न्याय था। वैदिक वाक्यां के परस्पर समन्वय और समा- पूर्व मीमांसा धान के लिये जैमिनि ने पूर्व मीमांसा में जिन युक्तियों और तर्कों का व्यवहार किया, वे पहले न्याय के नाम से
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