पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१४४

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दिशा, . (६१) प्रमेय-पक्ष । ईश्वर, जगत्, जीव आदि के संबंध में दोनों के सिद्धांत एक हैं। न्याय में मुख्यतः तर्कपद्धति और प्रमाण-विषय का निरूपण किया गया है, परंतु वैशेषिक में उससे आगे बढ़कर द्रव्यों की परीक्षा की गई है। नौ द्रव्यों-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, आत्मा (और परमात्मा) और मन की विशेषताएँ बताने के कारण इसका नाम वैशेषिक पड़ा। इनमें से प्रथम चार परमाणु अवस्था में नित्य और स्थूलावस्था में अनित्य हैं। दूसरे चार नित्य और सर्वव्यापक हैं । मन नित्य है, परंतु व्यापक नहीं। वैशेषिक के अनुसार पदार्थ केवल छः-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ही हैं पीछे से अभाव भी सातवाँ पदार्थ माना गया । रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, पृथकत्व, बुद्धि, सुख दुःख आदि चौवीस गुण हैं। उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि पाँच प्रकार की गतियाँ कर्म हैं। वैशेषिक का परमाणुवाद प्रसिद्ध है। परमाणु नित्य और अक्षर (अविनाशी) हैं। इन्हीं की योजना से पदार्थ वनते हैं और सृष्टि होती जब जीवों के कर्मफल के भोग का समय आता है, तब ईश्वर की उस भोग के अनुकूल सृष्टि करने की इच्छा होती है। इसी इच्छा या प्रेरणा से परमाणुओं में गति या क्षोभ उत्पन्न होता है और वे परस्पर मिलकर सृष्टि की योजना करने लगते हैं। इसका जैन दर्शन से भी बहुत कुछ साम्य है। इस पर कोई प्राचीन भाष्य नहीं मिलता ! प्रशस्तपाद का ‘पदार्थ-धर्म-संग्रह' वहुत संभवत: ७०० ई० के करीव वना था। यह वैशेषिक संप्रदाय का प्रामा- णिक ग्रंथ है। श्रीधर ने ६६१ ई० में 'पदार्थ-धर्म-संग्रह' की बहुत उत्तम व्याख्या की । ज्यों ज्यों समय गुजरता गया, और वैशे- षिक भी परस्पर अधिक समीप आते गए। सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम पर विशेष व्याख्या की गई है। सांख्य के अनुसार प्रकृति ही जगत् का मूल है और न्याय