काव्य .( ८४ ) हम ऊपर कह चुके हैं कि हमारे सैकड़ों काव्य, नाटक, उपन्या- सादि इस अंधकारमय दीर्घकाल के प्रभाव से मुसलमान शासकों के राजत्वकाल में नष्ट हो गए। जितने उपलब्ध भी हैं, उनमें से हमने कुछ का परिचय मात्र दिया है। संभव है, खोज से कई उत्तम और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथों का और भी पता लगे। ६०० से १२०० ई० तक के संस्कृत साहित्य पर सरसरी नजर डालने से पता लगता है कि वह समय संस्कृत साहित्य की दृष्टि से उन्नति की चरम सीमा तक पहुँचा हुआ था। तत्कालीन साहित्य का सिंहावलोकन काव्य, अलंकार, छंदःशास्त्र, नाटक आदि सभी अंग उन्नति करते हुए नजर आते हैं। इन साहित्य-ग्रंथों में केवल प्रेम की कथाएँ ही नहीं, किंतु वीर, करुण आदि अन्य रसों का भी पूरा विकास देख पड़ता है। नीति और शिक्षा की दृष्टि से भी ये ग्रंथ कम महत्त्व के नहीं हैं। भारवि का 'किरातार्जुनीय' राजनीति शास्त्र की दृष्टि से अपूर्व ग्रंथ है। वाण के 'कादंबरी' और 'हर्पचरित' में दिए गए उपदेश अपना सानी नहीं रखते। काव्य-चमत्कार तो हम प्रायः प्रत्येक काव्य में थोड़ा बहुत अवश्य पाते हैं। कविता भारतीय आर्यों की अत्यंत प्रिय वस्तु थी। केवल काव्य से संबंध रखनेवाले ग्रंथ ही कविता में नहीं लिखे गए, परंतु वैद्यक, ज्योतिप, व्याकरण, अंकगणित, बीजगणित ( इनके प्रश्न और उदा- हरण तक ) आदि अनेक विपयों के ग्रंथ भी छंदों में ही लिखे गए। इतना ही नहीं, हम देखते हैं कि गुप्तवंशी राजाओं के सिक्कों पर भी कविता-बद्ध लेख अंकित हैं। इतने प्राचीन काल में संसार के किसी भी देश में सिक्कों पर कवितावद्ध लेख नहीं लिखे जाते थे। ~
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