, दान-प्रथा ऊपर लिखे हमारं वर्णन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि भारतीय केवल भौतिक जीवन की तरफ बढ़े हुए थे। उनका प्राध्या- त्मिक जीवन भी बहुत उन्नत था । बहुत सी धार्मिक वातं उनके जीवन का अंग बनी हुई थीं। पंच महायज्ञ गृहस्थी के लिये आव- श्यक कर्तव्य थे। अतिथि-सत्कार तो बहुत बढ़ा हुमाया। यज्ञों में पशु-हिंसा बौद्ध धर्म के कारण कम हो चुकी थी। उसके साथ यज्ञों का होना भी अवश्य कम हो गया था, परंतु हिंदू धर्म के अभ्युदय के साथ फिर यज्ञ प्रारंभ हो गए थे। हमारं निर्दिष्ट काल में बड़े वड़े यज्ञों का उल्लेख वहुधा नहीं मिलता। हिंदू समाज जहाँ इतना अधिक उन्नत था, वहाँ उसमें, किसी न किसी रूप में, दास-प्रथा भी विद्यमान थी। दाल-प्रया हमारं निर्दिष्ट समय से बहुत काल पूर्व सं चली जाती भी। मनु और याज्ञवल्क्य श्रादि स्मृतियों में दान-प्रया का वर्णन है। याज्ञवल्क्य स्मृति के टीकाकार विजानवर ( बानी शताब्दी ) ने पंद्रह प्रकार के-गृहजात ( घर फी दानी से उस ), क्रीत ( खरीदा गया ), लब्ध ( दानादि में मिला हुया ), दाया- पागत ( वंशपरंपरागत ), अनाकालभृत् ( दुभिक्ष में मरने में रक्षित ), अाहित ( धन देकर अपने पास रखा हुया ), अदान ( कर्ज में रखा हुया ), युद्धप्राप्त (लड़ाई में पकड़ा हुया), पणेजित ( जुए आदि में जीता हुला), प्रव्रज्यावलित ( माधु हाने के बाद बिगड़कर दास बना हुला), कृत ( समय की शान के साथ रखा हुआ ), वडवाहत (घर की दासी के लाभ से वाया तुना ) और आत्मविता (अपने सापको बेचनेवाला )-दासां का उल्लेख किया है। दास लोग जो कुछ कमाते थे उन पर उनकं स्वामी
- गजातस्ता नीता को दामदुपागतः ।
धनादालनतलहदाहितः सानिना ३८ः।। . .