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समीक्षा

विदेश-यात्रा-निवारण करने का जब और कोई उपाय न सूझा, तो वह मार्ग में खाली घड़े लेकर खड़ी हो गई। यथा—

"नागरी नबेली रूप-आगरी अकेली रीती
गागरी लै ठाढ़ी भई बाट ही के घाट मैं।"

जिस प्रकार 'रीति गागरी' का मिलना अशुभ है, वैसे ही जल- पूर्ण कुंभों का मिलना शुभ है। ऐसा शकुन मिलने पर यात्री दूने उत्साह से यात्रा करता है। मतिरामजी ने ऐसा अवसर उपस्थित कराकर रसिकता-विशेष का परिचय देते हुए यात्रा निवृत्त कराई है। कैसा कवि-कौशल है!

"प्यो राख्यो परदेश तैं अति अद्भुत दरसाय-
कनक-कलस पानिप-भरे सगुन उरोज दिखाय।"

(३) केवड़ा-फूल फूल-बाग़ में लगाना मना है। कहा जाता है, वह 'मनहूस' फूल है। बहुत लोग इस कथन पर विश्वास करते हैं।‌ परंतु अनेक लोग केवड़े के अनुपम आमोद पर मुग्ध होकर उसे सादर 'गेह-आराम' में स्थान देते हैं। एक ऐसे ही गेह-आराम' से लौटी हुई नायिका अपने सुरत-गोपन का कार्य किस चतुरता से करती है—

"भलो नहीं यह केवरो सजनी, गेह-अराम;
बसन फटै कंटक लगै निसि-दिन, आठो याम।"

(४) हरिल-पक्षी के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह जिस लकड़ी को अपने पंजों में दबा लेता है, उसको छोड़ना ही नहीं जानता। मतिराम ने मानिनी के हठ की 'हारिल की लकरी' से अच्छी समता की है—

"हा-हा कै निहारेहू न हेरति हरिन-नैनी,
काहे को करत हठ हारिल की लकरी।"

विविध विषय का ज्ञान

(१) "मेरे दृग-बारिद बृथा बरसत बारि-प्रबाह;
उठत न अंकुर नेह को तो उर-ऊसर माह।"