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मतिराम-ग्रंथावली

 

कोट किरीट किए ‘मतिराम' केलि करै चढि मोर पखान मवासी;
क्यों मन हाथ करौं सजनी? बनमाल मैं बैठि भयो बनबासी।"

आँसू

आँखें किसी पर रीझ गई हैं। इसलिये उन पर रीझ का भार है। सुकुमार नेत्रों के लिये यह कितना अधिक बोझ है! आखिर श्रम-भार से जल-बिंदु झलक ही तो आए। यही श्रम-बिंदु आँसू हैं। आइए, इन आँसुओं का पहले वह सौंदर्य देखें, जो इनके नेत्रों से पृथक न होने पर है—जिस समय ये बरुनियों का मूल छूकर फिर लौट जाते हैं। वाह! यह दृश्य तो समुद्र में ज्वार-भाटा आने के समान है। समुद्र भी तो बेला के आगे नहीं बढ़ता है। फिर ज्यों-का-त्यों लौट जाता है। नेत्र-जल की भी यही दशा हुई है। अहो! मोती के समान आँसू नेत्र के किनारों पर कैसे अटके हुए हैं! जान पड़ता है, कटाक्षों से छिदकर वे अपने स्थान से आगे नहीं बढ़ पाते हैं—

"ईछन छोरनि ते न गिरे, मनो तीछन कोरनि छेदि रहे हैं।"

यह कल्पना भी हो गई। अब देखिए, आँसू टपाटप गिर रहे हैं। मानो आकाश से तारे टूट-टूटकर गिर रहे हों। यह दृश्य भय उत्पन्न कराता है। तारों का टूटना भावी अमंगल का सूचक है। अच्छा तो तारोंवाले रूपक को भल जाइए। मंगलमय चित्र देखिए—

"आँखिन ते आनॅंद के आँसू उमगाय प्यारी
प्यारे को दिवावति सुरति मुकतान की।"

अब यह तो भली भाँति प्रकट हो गया कि आँसू सुख के भी होते हैं, और दुख के भी! पर ये बंद कैसे किए जायें—

"बिन देखे दुख के चलहिं, देखे सुख के जाहिं;
कहो लाल, इन दृगन के अँसुवा क्यों ठहराहिं?"

बंद होना तो दूर की बात है; यहाँ तो यह अवस्था हो रही है कि—

"नागरि के नैनन ते नीर को प्रबाह बढ़यो,
देखत प्रबाह बढ़यो जमुना के नीर को।"