के ऊपर ही मँडराया करता है। उस समय इसकी सामर्थ्य न जाने कहाँ हवा खाने चली जाती है। पर यह रसिक भी परम प्रवीण है। सुधा-सरोवर में मीन के समान कलोलें भी खूब करता है। धूर्तता भी इसमें कम नहीं है। देखो न, शिवजी को धतूर के फूल-मात्र देकर ऐसा राजी किया कि तीनो लोक की साहिबी अपने हाथ में कर ली। इसके हलकेपन की बातें तो आपने जानीं; परंतु यह गरुआ भी बहुत है। इसका नाम क्या सूचित करता है? सो अत्यंत सूक्ष्म कटिवाली नायिकाएँ इससे सदा सशंकित रहती हैं। यद्यपि यह उनके अनुरूप रहता है, फिर भी उन्हें इसके भार से अपनी पतली कमर के टूट जाने का भय बना ही रहता है। शिवजी को इसने जिस प्रकार से अपने वश में किया है, वह तो आप जानते ही हैं। बस, हमारी तो मन से यही प्रार्थना कि जैसे अब तक नाना प्रकार के कष्ट उठा-उठाकर भी हमने उसका कहना माना है, उसी प्रकार उसे भी अब हमारा कहना मान करके थोड़े में सिद्धि देनेवाले श्रीशंकर के चरणों का आश्रय लेना चाहिए। इससे संपूर्ण संताप दूर हो जायगा। शीतलता छा जायगी। इससे सरल और दूसरा कोई उपाय है ही नहीं। त्रिलोकीनाथ महादेव को छोड़कर धतूर और मदार के फूलों से और कौन संतुष्ट होते देखा गया है?
"तेरो कह्ये सिगरो मैं कियो, निसि-द्योस तप्यो तिहुँ तापनि ताई;
मेरो कह्ये अब तू करि जोरि जो, सब दाह मिटै, परिहै सियराई।
संकर-पायनि मैं लगि रे मन, थोरे ही बातन सिद्धि सोहाई;
आक-धतूरे के फूल चढ़ाए तैं रीझत हैं तिहुँ लोक के साँई।"
फिर वन में डाकुओं के समान रहकर जो-जो घोर कर्म इसने किए हैं, उनका प्रायश्चित्त विना अपने आपको शंकर के अर्पण किए कैसे होगा। अरे मन, क्या तुझे याद नहीं कि तूने—
"भौंह कमान कै, लोचन बान कै, लाजहि मारि रहै बिसवासी;
गोल कपोलनि केलि करै, भयो कुंडल लोल हिंडोल बिलासी।