पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/९०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८६
मतिराम-ग्रंथावली

बलात् लूट ली गई है। यह कितने दुःख की बात है। फिर भी आश्चर्य तो इस बात का है कि इतनी अनीति करके भी इन नेत्रों की प्रशंसा क्यों होती है? देखिए—

"देखत ही सबके चुरावती है चित्तनि को,
फेरि कै न देती, यों अनीति उमड़ाई है;
'कबि मतिराम' काम-तीर हू ते तीछन
कटाछनि की कोरैं छेदि छाती में गड़ाई है।
खंजरीट, कंज, मीन, मृगनि के नैननि की
छीन-छीन लेती छबि, ऐसी तैं लड़ाई है;
तेरी ॲंखियान मैं बिलोकी यह बड़ी बात,
इते पर बड़ी-बड़ी पावती बड़ाई है।"

मन और हृदय

यदि इस हृदय में स्नेह का अंकुर नहीं उगता तो निस्संदेह यह ऊसर क्षेत्र के समान है। उर भी कितना कठोर होगा, इसका पता तो इसी बात से मिलता है कि उरोज कितने कठोर होते हैं। प्रेमी की शिकायत है कि उसका स्मरण नहीं किया जाता, परंतु जो कठिनता है, उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। स्मृति-मूर्ति का निवास-स्थान हृदय-मंदिर है; परंतु दुर्भाग्य-वश वह हृदय ही खो गया है। अब कहिए, स्मृति कैसी की जाय? हृदय की बातें ही निराली हैं। आग लगती है कहीं, और ज्वाल-मालाएँ उठती हैं हृदय में। हृदय का साथी मन भी वैसा ही रंगीला है। उसके कर्तव्य और भी निराले हैं। कभी तो वह विराट्काय ईश्वर तक को अपने मंदिर में फाँस लेता है, और फिर छुटकारा देने का नाम भी नहीं लेता। कभी वह स्वयं श्रीकृष्णचंद्र की वनमाला में बैठकर वन-वन में मारा-मारा घूमता है। बवंडर में पड़े हुए पत्ते की दशा तो पाठकों ने देखी ही होगी। बस, कभी-कभी यह मन भी उसी के समान किसी प्रेमी