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मतिराम-ग्रंथावली

नहीं, तो उस चंपक-वर्णवाली नायिका के मृदु हास्य को जाकर देखिए। श्रीकृष्णजी के श्यामल कोमलांग के साथ एक सफ़ेद फूलों की माला झूल रही है। बेचारी का रंग बदरंग हो गया है। उस पर श्यामता छा गई। पर वह देखिए कि राधिकाजी ने ज़रा-सा मुस्किरा दिया। हार की सारी श्यामता न-जाने कहाँ गई। वह फिर सफ़ेद-का-सफ़ेद दिखलाई पड़ रहा है। मृदु मुस्कान का कैसा रमणीय प्रभाव है! इस मृदु मुस्कान का पान श्रीकृष्ण भगवान् के नेत्र दिन-रात किया करते हैं, फिर भी बेचारों की पिपासा-शांति नहीं होती। यह मंद मुस्किराहट कंदर्प के अजेय दर्प का प्रकट रूप है। शरच्चंद्र की चाँदनी इसका सामना कैसे कर सकती है? प्रभात-काल के विकसित अरविंद इसे देखकर लज्जित हो जाते हैं। इसके थोड़े-से प्रभाव से मोहिनी-सी पड़ जाती है। प्रेमिकाएँ अपने प्रेमी को बहुमूल्य हीरों की भेंट देने के वादे का स्मरण कराने के लिये थोड़ा-सा मुस्किरा दिया करती हैं। मुस्किराहट और हीरे के समान उज्ज्वल आभा का स्मरण करके तुरंत प्रेमी को अपने वादे याद आ जाते हैं। कलह-रूप वर्षाकाल में जब अश्रु-बूंदों की झड़ी लग जाती है, तो यह मृदु हास्य भी हंस के समान न-जाने कहाँ चला जाता है। कैसा अपूर्व मृदु हास्य है! क्या सरस्वती देवी का श्वेत उत्तरीय हिल रहा है? क्या यह कामदेव का धवलित यशःपुंज है? सुवासित सुमनों का पराग तो नहीं बिखर गया? श्रीराधिकाजी की नथ में पड़े हुए गजमुक्ताओं की आभा का विस्तार तो नहीं? मूर्तिमान् हो करके हृदयोल्लास तो नहीं निकल रहा है! श्रीकृष्णचंद्र के नेत्रों को शीतल करने के लिये यह कर्पूर-चूर्ण तो नहीं फेका गया है? अनोखे मृदु हास्य, तूने कैसे-कैसे संदेह उत्पन्न कर दिए हैं—

"बानी को बसन कैधौं बात के बिलास डोलै,
कैधों मुख - चंद चारु चंद्रिका-प्रकास है?