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समीक्षा

भूषणजी ने किया है, वह अत्यंत उदात्त होने पर भी मतिरामजी के तादृश अनुपम वर्णन को नहीं पाता—

"मधुकर - कुल करिनीनि के कपोलनि तैं,
उड़ि - उड़ि पियत अमिय उड़पति मैं।"

इस पद में उदात्त के साथ जिस सौंदर्य का सामंजस्य हुआ है, वह अनुपम है, इसमें कोई भी संदेह नहीं।

विस्तार-भय से गज-वर्णन-संबंधी अन्य छंदों को यहाँ उद्धत करना ठीक न होगा। जो पाठक इस विषय में कविवर के रचना-कौशल का पूर्ण रूप से अध्ययन करना चाहें, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे एक बार 'ललित ललाम' को मन लगाकर पढ़ जायँ। मतिरामजी का गज-वर्णन अपूर्व है।

मृदु हास्य

साहित्य-दर्पणकार ने हास्य को छ प्रकार का माना है। मुस्किराहट, इतनी मुस्किराहट कि दाँत भी दिखलाई पड़ जायँ, मधुर मुस्किराहट, भली भाँति हँसना, हँसते-हँसते नेत्रों में पानी का आ जाना तथा हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाना, ये ही हास्य के छ भेद हैं। इनमें से प्रथम तीन का कुछ विशेष आदर है। मतिरामजी के काव्य में 'मृदु हास्य' का ठौर-ठौर पर वर्णन है। उनके वर्णनों से जान पड़ता है कि मृदु हास्य से उनका प्रयोजन उपरि-दर्शित हास्य के प्रथम तीन भेदों से है। मृदु हास्य के अतिरिक्त भी उन्होंने हास्य का वर्णन किया है, परंतु वह बहुत कम। ललित लालम और रसराज के मृदु हास्य-संबंधी कुछ पद्यांश यहाँ गद्य-लेख-रूप में दर्शित किए जाते हैं—

चंद्रानन उदित हुआ है, जिसमें मृदु, मंजु हँसी की ज्योत्स्ना छिटक रही है। इस मृदु मुस्कान का उद्योत तो ऐसा ही है, मानो गंगाजी के उज्ज्वल निर्मल जल में चंद्रमा की दीप्ति झलक रही हो। क्या कभी आपने चंपकबल्ली से चमेली के फूल झरते देखे हैं? यदि