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मतिराम-ग्रंथावली

भाव को पुष्ट करनेवाला है। उसमें गंभीरता के साथ 'अर्थ-व्यक्ति' का भी समावेश है।

"उलदत मद, अनुमद ज्यों जलधि जल,
बलहद, भीम कद, काहू के न आह के;
प्रबल प्रचंड, गंड-मंडित मधुपबृंद,
बिंध्य-से बलंद, सिंधु सातह के थाह के।
'भूषन' भनत, झूल झंपति झपान झुकि,
झूमत झुलत, झहरात, रथ डाह के;
मेघ से घमंडित, मजेजदार, तेज-पुंज,

गुंजरत कुंजर कुमाऊँ - नरनाह के।"

(भूषण)

"सजल जलद जिमि झलकत मद - जल,
छिंतितल हलत चलत मंद गति मैं;
कहै 'मतिराम', बलबिकम बिहद्द सुनि,
गरजनि परै दिगवारन बिपति मैं।
सत्ता के सपूत भाऊ तेरे दिए हलकनि,
बरनी उँचाई कबिराजनि की मति मैं;
मधुकर - कुल करिनीनि के कपोलनि तैं,

उड़ि - उड़ि पियत अमिय उडुपति मैं।"

(मतिराम)

उभय कविवरों के दोनो ही छंद परम प्रसिद्ध हैं। रसिकों का हृदय ही इस बात का साक्षी है कि दोनो छंदों में आगे कौन निकल रहा है। हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि—

"प्रबल प्रचंड, गंड-मंडित मधुप - बृंद,
बिंध्य-से बलंद, सिंधु सातहू के थाह के।"

इस पद द्वारा कुमाऊँ-नरनाह के हाथियों की उंचाई का जो वर्णन