भूषणजी के शिवराज कविराजों को ऐसे-ऐसे हाथी दान में देते हैं कि उनकी फ़िक्र मिट जाती है। ज़रबाफ़ की बनी झूलें उन हाथियों पर पड़ी झिलमिलाती हैं। पैर जंजीरों से जकड़े रहते हैं। भ्रमर भन-भन करते हैं। घंटे घनघनाते हैं। उनकी गरज सुनकर दिग्गज शरमा जाते हैं, और मद इतना बहता है कि उसमें पर्वत डूब जाते हैं। भूषणजी का इस आशय का छंद नीचे लिखा जाता है—
"साहितनै सिवराज ऐसे देत गजराज,
जिन्हैं पाय होत कबिराज बेफिकिरि हैं;
झूलत झलमलात झूलैं जरबाफन की,
जकरे जॅंजीर जोर करत किरिरि हैं।
'भूषन' भँवर भननात, घननात घंट,
पग झननात, मनो धन रहे घिरि हैं;
जिनकी गरज सुने दिग्गज बेआब होत,
मद ही के आब गड़काब होत गिरि हैं।"
भूषणजी का यह वर्णन उत्तम होने पर भी कुछ असंबद्ध-सा है। कविराजजी गजराज पाने से ऐसे कुछ बेफ़िक्र हो गए हैं कि उनको उस पर बारीक निगाह डालने का मौका ही नहीं मिल रहा है। झूल पर निगाह पड़ी, फिर पैरों पर जा ठहरी; भ्रमर-शब्द सुना, फिर घंटा धनधनाने लगा। जब कहीं गरज सुनी, तब मद-जल पर निगाह गई। कहने का तात्पर्य यह कि भूषणजी की निगाह पीठ से पैरों पर फिर वहाँ से गंडस्थल पर (पहली बार गंडस्थल पर पहुँचकर भी कविजी को मद-जल नहीं देख पड़ता), फिर पैरों पर, फिर सूंड पर (गरज सुनकर), तब फिर गंडस्थल पर बिछली-बिछली फिरती है। इस बेफ़िक्री में हाथी की उँचाई, उसका सुडौलपन, उसका युद्ध के उपयुक्त होना आदि सब कुछ भूषणजी भूल जाते हैं, लेकिन मतिरामजी ऐसे 'बे-फिकिरि' कवि नहीं हैं। उनकी निगाह जहाँ गड़ती