सौभाग्य की बात समझते हैं। हिंदी के कवियों ने हाथियों का बड़ा ही अतिशयोक्ति-पूर्ण वर्णन किया है। उनकी उंचाई पहाड़ों से भी अधिक बतलाई गई है, उनके मद-जल से समुद्र बन गए हैं, इत्यादि। मतिरामजी के वर्णन भी ऐसी अतिशयोक्तियों से खाली नहीं हैं। तो भी उन्होंने जो वर्णन उठाया है, उसका अंत तक मार्मिकता के साथ निर्वाह किया है। हम पाठकों के मनोरंजन के लिये यहाँ 'ललितललाम' से कुछ छंद उद्धत करते हैं—
(१) अधिक-अभिन्न-रूपक के उदाहरण में मतिरामजी हाथियों को सजीव पर्वत बतलाते हैं। पहले तीन पदों में पर्वत और गजों की अभिन्नता का निर्वाह करके अंतिम पद में सजीवता-रूप अधिकता का बड़ा ही सुंदर उल्लेख हुआ है। पर्वत पत्थर आदि कठोर वस्तुओं के बने होते हैं, तो गज भी संग्राम में अपने शरीर की कठोरता का पूरा परिचय देते हैं। यदि पर्वतों पर अनेकानेक झरने बहते दिखलाई पड़ते हैं, तो हाथियों के गंडस्थल से भी मद-धारा का प्रवाह जारी रहता है। यदि पर्वतों पर विविध प्रकार के वृक्षों के फूल फूलते हैं, तो हाथियों की रंग-बिरंगी झूलें भी वैसी ही शोभा दिखलाती हैं। यहाँ तक कि यदि पर्वतों में गेरू की लाल-लाल चोटियाँ देख पड़ती हैं, तो हाथियों के मस्तक भी सुंदर सिंदूर-मंडित रहते हैं। फिर पर्वतों और इन हाथियों में अंतर ही क्या रह जाता है? और तो कुछ नहीं, केवल इतना ही अंतर दिखलाई पड़ता है कि पर्वत तो एक स्थान पर स्थिर हैं, पर ये हाथी, जिधर देखो, उधर ही चलते-फिरते नज़र आते हैं। उदार भावसिंहजी ने ऐसे ही 'सजीव पहार' (अभिन्न-रूपक में अधिकता-सूचक शब्द) याचकों को बखशिश में दिए हैं। पूरा छंद इस प्रकार है—
"जग मैं अंग कठोर महा, मद-नीर झरैं, झरना सरसे हैं;
झूलनि रंग घने 'मतिराम' महीरुह-फूल-प्रभानि कसे हैं!