पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/७५

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समीक्षा

JILLN malaineer समीक्षा ७१ हैं, और होने भी चाहिए; पर मतिराम की रसीली और लचकीली भाषा ने इन चारो वर्णनों को एक ही पदार्थ में इस प्रकार गॅथ दिया है कि एक वर्णन से दूसरे वर्णन में प्रवेश करते समय भाषा के निरंतर प्रवाह में रुकावट नहीं पड़ती। भाषा की मधुर धारा एक ही रूप में चारो वर्णनों का सिंचन करती है । अलंकार-प्रस्फु- टन पर निगाह डालिए। 'कुंदन को रँगु फीको लगै' में प्रतीप, संपूर्ण छंद में स्वभावोक्ति, 'को बिन मोल बिकात नहीं' में काकु और लोको- क्ति तथा 'निहारिए, नेरे, नैननि, निकर और निकाई' में अनुप्रास- चमत्कार मौजूद है। छंद में ये अलंकार कवि के प्रयास से नहीं आए, वरन् सहज ही समर्थ रचना की सेवा करने को साथ हो लिए हैं। उपर्युक्त पद्य में संभवत: 'सरसाई' का व्यवहार 'सरसता' के लिये किया गया है। यह प्रयोग काव्येतर भाषा में चित्य हैं, परंतु यहाँ तो साधारण कवि-स्वातत्र्य के अंतर्गत आ जाता है । इस छंद के विषय में यहाँ जो कुछ लिखा गया है, प्रायः वे ही सब बातें आगे के उदा- हरणों के विषय में भी कही जा सकती हैं । इस कारण वे वहाँ पर दोह- राई नहीं गई हैं। हमारी मंद बुद्धि के अनुसार आगे के चार छंदों के अंतिम पदों में उत्तम शब्दों को उत्तम क्रम से स्थान मिला है । कदा- चित् टेनिसन की कविता की परिभाषा ऐसे ही शब्द-समूह के लिये है- (२) "गुच्छनि को अवतंस लसै सिखिपच्छन अच्छकिरीट बनायो; पल्लव लाल समेत छरी कर पल्लव सो 'मतिराम' सुहायो। गुंजनि के उर मंजुल हारनि कुंजनि ते कढ़ि बाहेर आयो ; आजु को रूप लखे ब्रजराज को आँखिन को फल आजु ही पायो।" (३) “मोरपखा 'मतिराम' किरीट मैं, कंठ बनी बनमाल सोहाई; मोहन की मुसकानि मनोहरि कुंडल डोलनि मैं छबि छाई । लोचनि लोल, बिसाल बिलोकनि, को न बिलोकि भयो बस माई ! वा मुख की मधुराई कहा कहौं, मीठो लगै अँखियान-लुनाई ।"