तक पहुँचने के लिये भटकता फिरे। भाषा का तीसरा प्रधान प्रशंसनीय गुण यह है कि वह ठीक मतलब की बात बहुत थोड़े से शब्दों में प्रकट कर दे। इस प्रकार भाव प्रकट करने की पूर्ण सामर्थ्य, पाठक को भाव तक तत्काल पहुँचा सकना और वह सुंदरता के साथ थोड़े शब्दों में, तीन गुण भाषा के लिये परमावश्यक हैं।
भाषा के और भी अनेक गुण हैं। उसमें सरलता होनी चाहिए। भाषा में जितना ही कृत्रिमता का अभाव होगा, वह जितना ही स्वाभाविक ढंग से विना उद्योग के प्रवाहित होगी, उतनी ही उसकी प्रशंसा होगी। वसंत ऋतु के आते ही पुराने वृक्ष भी नए-से जान पड़ते हैं। वे पूर्णतया हरे-भरे दिखलाई पड़ते हैं। वृक्षों की यह तरोताजगी, यह नव भाव बड़ा ही रमणीय है। भाषा में भी इस तरोताज़गी और नव भाव की आवश्यकता है। भाषा के स्वाभाविक प्रवाह के साथ जब सुकुमारता का सम्मिलन हो जाता है, तो सोने में सुगंध की कहावत चरितार्थ होती है।
भाषा में आवश्यकता और परिस्थिति के अनुकूल झुक जाने की भी सामर्थ्य होनी चाहिए। ऐसा न हो कि एक भाव या वर्णन से दूसरे भाव या वर्णन की ओर ले जाते समय वह उखड़ जाय। सारांश यह कि भाषा में लचकीलापन भी चाहिए*[१]। सामंजस्य-पूर्ण, स्वाभाविक प्रवाह को अपनाने की रुचि भी भाषा को अपेक्षित है। कवियों की भाषा में आप ही आप अलंकारों का प्रादुर्भाव होता जाता है। अलंकार-प्रस्फुटन के इस गुण पर जो भाषा कृपालु है, उसे अच्छी भाषा कहलाने का सौभाग्य प्राप्त है। पर इस अलंकार प्रस्फुटन का
- ↑ +"We test a language by its elasticity, its response to rhythm, by the kindness with which it looks upon the figurative desires of a child and the poet."
ERNEST Rhymes