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मतिराम-ग्रंथावली


"आपके स्नेह के कारण मैंने लज्जा का त्याग किया। घर के सब काम-काज भूल बैठी। गुरुजनों का भय भुला डाला। गाँव में अपने विषय में चवाव होने दिया । मेरा नाम बदनाम हुआ। मैंने ये सब हित की बातें की भी, तो क्या हुआ? आपने तो सभी कुछ सुला डाला । सच है, कोई लाख-लाख तदवीरें क्यों न करे, पराया प्रियत - कभी अपना भी हुआ है ?"

"रावरे नेह को लाज तजी, अरु गेह के काज सबै बिसराए; डारि दियो गरु लोगनि को डरु, गाँव-चवाय मैं नाम धराए। हेत कियो हम जो, तौ कहा ? तुम तो 'मतिराम' सबै बहराए ; कोऊ कितेक उपाय करौ, कह होत हैं आपने पीय पराए ?"

इसमें अंतिम पद में जिस सामान्य का कथन किया गया है, उसका समर्थन पहले तीन पदों में कही गई बातों से किया गया है । इसलिये अर्थांतरन्यास स्पष्ट है। अंतिम पद में जो झिड़की है, वह बड़ी सुकु- मार, मदुल और रसीली है। नायिका ने नायक के लिये जिन दोषों का आश्रय लिया, उनसे जो दोष या गुण प्रादुर्भूत हुए, उनका असर नायक पर बिलकुल नहीं पड़ा, इस दृष्टि से देखने पर इसमें 'अवज्ञा'- अलंकार की भी स्थिति मानी गई है।

"जसवंत-जसोभूषण' में जिन कतिपय अलंकारों पर कविराजा मुरारिदानजी ने जोर दिया है, उनमें से कई का वर्णन 'ललितललाम' में अलंकारों के उदाहरण में नहीं है । फिर भी इनमें से कई एक के उदाहरण जसवंत- जसोभूषणकार ने इन्हों की कविता से खोज निकाले हैं। मतिरामजी की कविता के लिये यह कम गौरव की बात नहीं है । मुरारिदानजी प्रत्येक अलंकार का लक्षण उसी के नाम में मानते हैं। उनकी राय में लक्षण का बोध नाम ही करा देता है। उसके अलग कहने की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसे अलंकारों के भी कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-