शब्द की, अर्थ की तथा शब्दार्थ की, इस प्रकार तीन प्रकार की आवृत्ति मानी गई है।
शब्दार्थावृत्ति दीपक का उदाहरण लीजिए—
"सकल सहेलिन के पीछे-पीछे डोलति है,
मंद-मंद गौन आजु आपु ही करति है;
सनमुख होत सुख होत 'मतिराम' जब,
पौन लागे घूॅंघट के पट उधरत है।
जमुना के तट, बंसीबट के निकट,
नंदलाल पे सकोचन ते चाह्यो ना परत है;
तन तो तिया को बट-भाँवरे भरत,
मन साँवरे बदन पर भाँवरे भरत है।"
उपर्युक्त छंद के अंतिम पद पर ध्यान दीजिए। नायिका का शरीर तो वट-वृक्ष की भाँवरें कर रहा है, परंतु मन श्यामसुंदर के वदनारविंद पर मँडरा रहा है। 'भाँवरें भरना' शब्दों की आवृत्ति हुई है; परंतु एक स्थान पर भाँवरों का अर्थ वास्तव में चक्कर लगाना है, पर दूसरे स्थान पर उसका अर्थ श्यामसुंदर में तन्मय होना है। सो शब्द की आवृत्ति भी हो गई, और अर्थ की आवृत्ति भी। यह छंद रसराज में 'विहृतहाव' के उदाहरण में दिया गया है। दलपतराय वंशीधर ने अपने 'अलंकार-रत्नाकर' ग्रंथ में इस छंद को बड़े गौरव के साथ स्थान दिया है।
अर्थांतरन्यास
अर्थांतरन्यास आठ प्रकार का होता है। मतिराम ने केवल दो प्रकार का अर्थांतरन्यास माना है, अर्थात् जहाँ विशेष से सामान्य का और सामान्य से विशेष का समर्थन हो। इन दो में से पहले प्रकार का जो उदाहरण मतिरामजी ने 'ललितललाम' में दिया है, वह बड़ा ही मनोहर बन पड़ा है। परकीया खंडिता नायिका की उक्ति है। नायिका की कैसी मृदुल फटकार है—