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मतिराम-ग्रंथावली

भी वही हैं, जिन पर सूर्य का प्रभाव पड़ा है। तेज-पुंज में मारुत और मार्तंड दोनो के प्रभाव सम्मिलित हो गए हैं, इसलिये तीसरे और चौथे पद पूरे-पूरे तेज-पुंज के अधीन हैं। कितना विस्तृत और मनोमोहक यथासंख्य है! अंतिम पद की अनुप्रास रमणीयता की कहाँ तक प्रशंसा की जाय! कवि को इस छंद में केवल यथासंख्य दिखलाना था, पर और भी कई अलंकार स्वभावतः कवि-प्रतिभा से आकृष्ट छंद में अपने दिव्य दर्शन दे रहे हैं। विभावना, प्रतीप, समुच्चय और उपमा की मनोहर झलक मन को मुग्ध करती है। ओज-गुण और शब्द-चमत्कार का ठाट ही निराला है। सत्कवि के कर्तब ऐसे ही होते हैं। हिंदी साहित्य में इस जोड़ का दूसरा यथासंख्य ढूंढ़ने से न मिलेगा। तोषनिधि ने मतिराम के यथासंख्य की नक़ल उतारी है, पर उसमें यथासंख्य का न तो वैसा निर्वाह ही हुआ, और न वह चमत्कार ही आया है—

"महाबीर, सत्रु साल नंदराव भावसिंह,
तेरी धाक अरिपुर जात भय-भोय-से;
कहै 'मतिराम', तेरे तेज-पुंज लिए गुन,
मारुत औ' मारतंड-मंडल बिलोय-से।
उड़त, नवत, टूटि, फूटि, मिटि, फाटि जात,
बिकल, सुखात बैरी दुखन समोय-से;
तूल-से, तिनूका-से, तरोवर-से, तोयद-से,
तारा-से, तिमिर से, तमीपति से, तोय-से।"

विकल्प

विकल्प उसे कहते हैं, जिसमें समान बलवाली वस्तुओं का विरोध चतुरता पूर्वक दिखलाया गया हो। मतिराम का लक्षण इस प्रकार है—