भी कर दी है। अलंकारों (अर्थ) में उपमा और स्वभावोक्ति मुख्य हैं। बहुत-से अलंकार तो इन दोनो के रूपांतर कहे जा सकते हैं। शब्दालंकारों की अपेक्षा अर्थालंकार ही विशेष आदरणीय हैं; परंतु शब्दालंकार भी उपेक्षणीय नहीं। 'ललितललाम' में शब्दालंकारों का वर्णन नहीं हुआ। उसमें केवल अर्थालंकारों के लक्षण और उदाहरण दिए गए हैं। रसवदादि कई ऐसे अलंकार हैं, जिनकी गणना रसों के अंतर्गत भी की जा सकती है। मतिरामजी ने इन अलंकारों का भी वर्णन नहीं किया। मतिरामजी के निम्न लिखित अलंकारों के लक्षण और उदाहरण बड़े ही अच्छे बन पड़े हैं—
उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दीपक, दृष्टांत, व्यतिरेक, अपह्नति, अतिशयोक्ति और आक्षेप।
ये सब मुख्य अलंकार हैं। इनमें प्रत्येक अलंकार के कई भेद भी हैं। अमुख्य अलंकारों के भी लक्षण और उदाहरण मतिरामजी ने परम मनोहर दिए हैं। इनमें से कुछ के नाम ये हैं—
विषम, विकल्प, यथासंख्य और निरुक्ति।
कविराजा मुरारिदान ने अपने बृहत् 'जसवंत-जसोभूषण' में कुछ नए अलंकारों की कल्पना की है। इस प्रकार के नवीन कल्पित अलंकारों के उदाहरण आपने अधिकतर कविवर मतिरामजी की कविता से दिए हैं। मुरारिदानजी का परिणाम अलंकार नाम-लक्षण के अनुरूप बतलाया गया है। परंपरित रूपक के अनुरूप उन्होंने परंपरित उपमा की कल्पना की है। अन्योन्य, विषाद और संकोच आदि कई अलंकारों की आपने पृथक सत्ता स्वीकार की है। अन्य अलंकारों के समान इनके लक्षणों का समावेश भी आप नाम ही में मानते हैं। इनमें के कई अलंकारों को संस्कृत के आचार्यों ने पहले से ही मान रक्खा है। हिंदी के भी कई आचार्यों ने इनमें के कई अलंकारों का उल्लेख किया है।
एक बिद्वान् समालोचक की राय है- "साधारण कविजन अलं-